28 जून 2012

अलार्म vs आलाप

किसी ना किसी के दया से हम भी थोड़ा बहुत सुर ताल में गा लेते हैं, बस अंतर इतना सा है कि हमारा स्तर बाथरूम सिंगर से थोड़ा ऊपर है | सुर-ताल की ज्यादा समझ तो नही है पर गाते टाइम इनका एडजस्टमेंट हो जाता है, शायद इसिलिए सही गा लेते है | या यूँ कहे कि कुछ लोगों को पसंद आ जाता है |
इन्हीं पसंद करने वालों में हमारे एक दोस्त है(जैसे सबके होते हैं) , उनको भी एक दिन गाना गाने का भूत सवार हो गया और हमसे पूछ बैठे कि ''अच्छे से गाने के लिए क्या करना चाहिए ?'' अब मुझे भी शेखी बघारने का मौका मिल गया जो लगे भुनाने (कोई भी ऐसा मौका छोड़ता नही है) सो थोड़ा सा सीना चौड़ा करके लगे ज्ञान देने -'' ये करो...वो करो....ऐसे गाना चाहिए .....यहाँ थोड़ा ऊपर लो....यहाँ थोड़ा नीचे लो ...(सुर).......फिर जाके के काम की बात निकली कि भोर (सुबह के 4-5 बजे) में उठकर आलाप  (सारेगामापाधनि ...) लगाया करो |
फिर उनका कहना था कि '' अच्छा ! मतलब सुबह का अलार्म लगाओ और फिर उठकर आलाप लगाओ "
हमने कहा " बिल्कुल सही डायरेक्शन में जा रहे हो ...."        येयेयेयेये..............धड़ाम...!!!  

कब-तक ?

            किस राह पर चला है तू,
            जानकार भी अनजान है |
            क्या था तू और क्या बन गया,
            ये तो तू नही था,
            जो बनने चला था |
            आखिर कब-तक ? वही कल देखेगा,
            जो वक्त के साथ पीछे रहना था |
            वक्त के साथ, तू बदल गया,
            पर नतीजे क्यूँ नही बदले ?
            अभी भी कही बाकी है कुछ ,
            जिसे एक मौके की तलाश है |
            उसको पहचान जो तुझे ,
            खिंचता है उस राह से अलग ,
            जिसके लिए....
            बस तू ही बना है,
            बस तू ही बना है |
       
                               -"मन"

23 जून 2012

एग्रीमेंट

उनके दोनों बेटे अपने-अपने बीवी बच्चों के साथ लंदन में बस गए थे | बूढ़े माँ-बाप पिछले पाँच साल से उनसे मिलने के लिए तरस रहे थे  | बेटे थे कि उन्हें कोई परवाह ही नही थी | वे अपनी ही दुनिया में मसगुल थे | कभी-कभार कुछ पैसे भेज देते या फोन कर लेते थे | बस ,,
कैंसरग्रस्त माँ ने कुछ दिनों से खाट पकड़ रखी थी, केवल बेटों के इन्तजार में साँसे अटकी हुई थी | उसे विश्वास था कि अंत समय आने से पहले, उसके बेटे जरुर आएंगे |पिता कभी नाउम्मीदी जताते तो वह क्रोधित  हो जाती,कैसे नही आएंगे..? जन्म दिया है उन्हें |पाल पोसकर, पढ़ा-लिखाकर बड़ा किया है उन्हें, देखना  जरुर आएंगे |
            आशा निराश हुई , छोटा बेटा आया भी तो माँ के गुजरने के बारह घंटे बाद | ''भईया नही आया , कोई बात नही, तुने अपनी माँ के अंतिम दर्शन तो कर लिए'' पिता ने किसी तरह अपने मन को समझाते हुए कहा |
तीन दिन बाद ही छोटू की वापसी का टिकट था | लौटने से पहले उसने पिता के चरण स्पर्श किए | '' खुश रहो .. पचपन साल का साथ था तेरी माँ का | मेरा बुढ़ापा भी बिगड़ गया ...इधर ये अस्थमा पीछा नही छोड़ता | एक बार तू भईया जरुर जल्दी ही मिल जाना | पता नही कितने दिन और सांसे लिखी हैं |'' पिता ने आँखों की भीगी कोरों को रुमाल से पोछते हुए कहा | '' वेल पापा, एज यू नो , नौकरी से छुटटी की प्रॉब्लम रहती है | फिर लंदन से आना भी तोह कितना कॉस्टली पड़ता है | फ्रेंडली स्पीकिंग मेरा अब आ पाना मुश्किल होगा | भईया से जरुर बोल दूँगा ...आप अपना ख्याल रखना |'' (क्या ऐसे ही बात किया जाता है अपने पिता से ..??)
छोटू एअरपोर्ट के लिए रवाना हो गया |जल्दी में छोटू अपना मोबाइल घर पर ही भूल गया | काफी देर बाद उसमे घंटी बजने पर पता चला , तब तक छोटू जा चूका था | पिता सोचने लगे की क्या करे | तभी अनजाने में उस मोबाइल सेट के फंक्शन  देखते हुए उनकी अंगुली उसके रिकार्डिंग वोईस बॉक्स के बटन पर क्लिक हो गई  | तभी दोनों बेटों के बीच एक वार्तालाप फुल वोल्यूम में उन्हें सुनाई दिया - ''सुना बड़े भईया , माँ नही रही , इंडिया चल रहे हो ना ?'' '' नही यार , तू तो सब जनता है, ये मीटिंग्स , टेंडर और क्लब इलेक्सन एंड व्हाट नोट | ..चल छोटू एक एग्रीमेंट करते हैं | माँ की डेथ पर इस बार तू चला जा ,,पापा की डेथ पर....यू नो , वह तो होनी ही हैं, मैं चला जाऊँगा | प्रोमिस (दबी सी हँसी)'' ''ओके डन'' |
पिता के लिए यह एक घातक सदमा था | आधे घंटे बाद वे आई.सी.यू में अपनी अंतिम सांसे गिन रहे थे |
                                                                                                      -मुरलीधर वैष्णव


22 जून 2012

काश..!

काश..! कुछ पल बटोर लेते..
काश..! कुछ पल बटोर लेते..|
''जहाँ'' हम रहते थे कभी, 
उस ''जहाँ'' की यादों से..
काश..! कुछ पल बटोर लेते..|
आज खुश रहकर भी खुश नही,
कल जो थे वहीँ है सही,
लम्हें जो सामने मुस्कुरा जाते हैं,
उन लम्हों में से ..
काश..! कुछ पल बटोर लेते..|
उन यादों को साथ लेकर,
नए यादों के लिए चलना,
उन यादों को याद करके, 
चेहरे पर हँसी लाना,
फिर रोकर मन को तसल्ली दिलाना,
फिर.. अगले ही पल सोचना कि,
उन बीते पलों में से,
काश..! कुछ पल बटोर लेते...|
                -"मन"
जी हाँ, बचपन की यादें कुछ ऐसीं ही होती हैं, जो हमें जीवन भर याद आती रहती है | बचपन के दिन ही अलग थे, ना कोई चिंता ना फ़िकर बस फुल मजे ही मजे | यही वो यादें है जिन्हें हमारा मन कभी-कभी सोचता है और हाथोंहाथ चेहरे पर एक प्यारी सी मुस्कान का सिग्नल भेजता है और फिर सामने वाला पूछ बैठता है कि ''क्या हुआ भाई..?''                                     
बस याद ना जाए उन बीते दिनों की... | 

वेलकम जी..

आप सभी का जो लिखने और पढ़ने का शौक रखते है, या इस नशा को पालने की तैयारी में है, इस ब्लॉग पर स्वागत है| (और मेरा भी)..
आप लोगों ने इस ब्लॉग को एक नज़र देखने की जो तकलीफ़ उठाई है , उसके लिए आपका धन्यवाद..! और आगे भी हम यही इच्छा रखते है कि ऐसे तकलीफ़ आप उठाते रहेंगे |
लिखने की चाह, आप मन की भड़ास भी कह सकते हैं, एक ऐसी कला है जो आपके मन को चैन से बैठने तक नही देती है, हालाकि जो इस कला में माहिर है उसके लिए बस चैन ही चैन है |
मन के जो भाव उभरते है, वह कहानी, कविता,व्यंग,आलेख आदि के रूप में निकलते हैं, और  जब कुछ बढ़िया नही सूझता है तो खाली-पीली ''पंचायती'' करने में तो बेशक निकलता ही है, (जो कि हमारा एक जन्म सिद्ध अधिकार है) |
लिखने का जो हुनर है, वह एक तरह के नशा के जैसे है..अंतर बस इतना सा है कि एक बार लग जाए तो उतरने का नाम ही नही लेता , और यह वहीं समझ सकता है जिसको यह बीमारी (जानलेवा नही) लगी हो | खुशकिस्मती से यह बीमारी मुझे भी है, इसलिए इस ब्लॉग के जरिए इस बीमारी के वायरस को अपने अंदर और बढ़ाने और आप लोगों के बीच और फ़ैलाने की कोशिश कर रहा हूँ |