30 दिसंबर 2018

उड़ता पंजाब और गली में कार

【 जब 'उड़ता पंजाब' वाला विवाद न्यायालय तक पहुँच गया था, तब   यह आलेख मैंने 2016 में ड्राफ्ट में लिखकर सेव कर दिया था,इनदिनों फ़िर किसी प्राइममिनिस्टर पर बनी फ़िल्म पर ख़ूब हो हल्ला मचा है, तो सोचा इसे पब्लिश कर दूँ】


'उड़ता पंजाब' वाला विवाद पुराना है पर नए संदर्भ और नए लोग अब जुड़ गए हैं।दलीलों की भरमार है और उन दलीलों को सही/गलत ठहराने के लिए और दलीलें,साथ में मुश्किल से खत्म होने वाली बहसें।

मैं भारतीय हूँ मेरे पास भी दलीलें हैं,पर बहुत सारे भारतियों की तरह मैं भी इस दुविधा में हूँ कि किस पक्ष की तरफ सरक जाऊँ।

सिनेमा का इतिहास सौ साल/सवा सौ साल का है मतलब इतिहास में निर्धारित टाइम लाइन पर सिनेमा,आधुनिक काल की देन है।नवीनतम शोध के परिणाम से यह निकलने वाला है कि हमारी सभ्यता 8000 वर्ष पुरानी है।मतलब इंसान, भाईचारा, रीति-रिवाज, संस्कृति, संस्कार(अच्छे/बुरे), दुश्मनी ये सब बहुत पहले से हैं और इसकी तुलना में सिनेमा बहुत बाद की है। पहले सिनेमा ने समाज से सबकुछ लिया, सीखा, पढ़ा और वक़्त बीतने के साथ-साथ भविष्य की संभावनाओं को समाज से ही सीखकर समाज को ही बताने लगा कि "ऐसा" भी हो सकता है।

समाज (भारतीय समाज) अनजान रहा या सिनेमा के तरीकों को समझने में पीछे रह गया (ये शोध का विषय है) ।

एक दिमागी रूप से संतुलित आदमी अपने पड़ोसी की हत्या कर देता है और कोर्ट में दलील देता है
"मेरे जीवन का आदर्श 'अमुक अभिनेता' है और उसकी एक काल्पनिक फ़िल्म की नकल करते हुए मैंने पडोसी की हत्या कर दी क्योंकि मेरे पड़ोसी में उस फ़िल्म के खलनायक की छवि दिखती है और वो पड़ोसी मेरे से दुश्मनी का भाव रखता था।हत्या कैसे की जाती है मुझे सिखाया गया"*
जज साहब क्या निर्णय लेंगे ???? आप सोचिये।

किसको क्या देखना है,इसका निर्णय उसी को करना चाहिए ?
एक आदर्श अवस्था की बात करें तो हम इंसान कहीं से भी,किसी भी परिस्थिति में,कुछ भी सीख सकते हैं
पर उस सीखे हुए को लागू करते वक़्त ये देखना पड़ेगा कि कहाँ पर लागू किया जा रहा है।

निर्णय किसका हो?यह बात भारतीय समाज के परिपेक्ष्य में कही जा रही है जहाँ पर संयुक्त परिवार की विरासत है,टूटे-फूटे स्वरुप में अब भी है और आगे रहने की गुंजाइश है।

'कुछ' फिल्मकारों को भी ध्यान रखना होगा कि रचनाधर्मिता की आड़ में क्या नहीं परोसना है।

वैसे भी सबको ख़ुश नहीं किया जा सकता !

गलियों को ध्यान से देखा है ? वहाँ खड़ी कार को ? बच्चों के लिए जग़ह नहीं है।

गिने-चुने पार्क बचे हैं। एक बच्चा सब काम करता हो पर खेलता नहीं हो तो आगे जाके ज़्यादा संभावना है कि वह नशे के गिरफ़्त में जायेगा या फ़िर जीने लायक क्षमता विकसित नहीं कर पायेगा, ऐसा मैं नहीं कह रहा, WHO की स्टडी रिपोर्ट है।

शिक्षा के अधिकार कानून के नियमों के अनुसार स्कूलों में खेल मैदान आवश्यक है।
शिक्षा अधिकार कानून की धारा 19 के अनुसार विद्यालयों में खेल के मैदान की उपलब्धता के बारे में पाया गया कि प्रति 255 विद्यालयों में से 96 विद्यालयों में खेल का मैदान नहीं है।**

पंजाब में गलियों की संख्या कितनी होगी, उनमें खड़ी कार कितनी होंगी? कितने बच्चे खेलने से बच जाते होंगे और ख़ुद को तैयार करते हैं नशे के लिए ?

...और फ़िर फ़िल्म बन जाती है "उड़ता पंजाब"


*जयप्रकाश चौकसे(परदे के पीछे, दैनिक भास्कर)

**हिंदुस्तान(2 अप्रैल 2013)

19 दिसंबर 2018

अमृता-इमरोज़ और भाग्यश्री...एक वो लड़का भी।

[यह कहानी जैसा कुछ "लल्लनटॉप कहानी कम्पटीशन" के लिए लिखी थी जो कि साहित्य आजतक-2018 में मैं भी एक प्रतिभागी के तौर पर शामिल हुआ था]

क्लास में आगे ही आगे बैठने की होड़ में उस दिन वो लड़का धक्के खाते हुए क्लास के अंदर जा सकता था, पर उसने आखिर में जाने के लिए बाहर खड़े रहने को चुना, वैसे ही जैसे उस लड़की ने भी चुना, बाहर ही रहना, आखिर में जाने के लिए।

"हमारे बैच की ही है" पहले इस दुविधा से पार पाते हुए लड़के ने उसे ऐसे देखा जैसे उसे कोई न देख रहा हो, वो लड़की भी नहीं। शायद , हाँ हाँ शायद ही, उसने भी लड़के को देखा हो ये सोच के कि उसे कोई न देख रहा हो। उन आंखों के लिए लड़के ने दिल से दुआ की कि इन्हें किस विटामिन की कमी रह गयीं जो इन्होंने थोड़े से गोलाई वाले काँच के चश्मे को चुना है।

ख़ैर, लड़के ने कईं दफ़ा उसे देखा इसी उम्मीद में कि वो उसे न देख रही हो। शायद ये काम लड़की ने भी किया हो पर ये पता करने का कोई रास्ता अब तक तो नहीं है। काश !

 
लड़का दावे के साथ कह सकता है कि लड़की को देखते हुए उसके ज़हन में कोई भी गाना बजने का भ्रम हुआ हो। यक़ीनन ये जरूर लगा था कि नेहरू विहार के उस भीड़-भाड़ वाली जगह पर केवल वे दोनों ही है और तीसरा वो थोड़े गोलाई लिये हुए काँच के चश्मे।ढाई घंटे की फ़िल्म की ये मजबूरी रहती है कि सबकुछ जल्दी-जल्दी होता है और पहले से तय भी होता है। उन्हें, नहीं-नहीं केवल लड़के को... कोई जल्दी नहीं ।क्लास में उस दिन "औपनिवेशिक मुक्ति" पढ़ाई गयी और लड़का किसी के दिल में कैद होने को तैयार बैठा था। "औपनिवेशिक मुक्ति के पतन के कारण" उसे उस दिन की क्लास में समझ न आया और लड़का ऐसा ही चाहता था।

उस लड़के के लिए ये पहला दिन था। अगले दिन के लिए उसने अपने दोस्तों को बताया कि कल ये कोशिश रहेगी कि हम दोनों एक साथ एक समय पर केवल एक दूसरे को देख रहे हों, थोड़े गोलाई लिये हुए काँच के चश्मे की गवाही के साथ।

अगले दिन से क्लास में नया टॉपिक शुरू होना था. नया टॉपिक के वास्ते नया रजिस्टर सभी लड़के-लड़कियों को चाहिए था. उन दोनों को भी चाहिए था. जिस दुकान से लड़का अक्सर अपनी स्टेशनरी की सामान खरीदता उसी दुकान पर वह गया. इत्तेफ़ाक़ से वही लड़की पहले से वहां मौजूद थी और एक रजिस्टर छांट के बाकियों को परख रही थी. लड़के ने दूर से ही लड़की को देखा,मुस्कुराया और कदमों को तेज़ चला के जल्दी से ख़ुद को उसके करीब पाया. लड़की ने जो रजिस्टर छांटा था उसी को लड़के ने उठाकर दूकानदार से उसका दाम पूछा ये जाने बगैर कि लड़की ने ही उस रजिस्टर को चुना है. दूकानदार के दाम बताने से पहले लड़के ने सुना कि "प्लीज, वो मुझे लेनी है,मैंने ही उसे अलग रखा है." लड़के ने कहा "सॉरी." लड़के ने दूसरा रजिस्टर चुना पैसे दिए और जाने से पहले सोचा कि और क्या बातें की जा सकती है लड़की से.

"पिछला टेस्ट कैसा हुआ?
रैंक क्या थी आपकी?
आप कहाँ से हो?
आपका नाम जान सकता हूँ?
आप भी F-26 बैच की है ना?
पढाई कैसी चल रही है?
ठण्ड बढ़ने लगी है ना?
ये वाला रजिस्टर आप क्यों नहीं ले रहीं ?"

इतने सवाल लड़के ने मन में दुहराए और एक भी लफ्ज़ बोले बिना लड़की को उसके रजिस्टर के साथ छोड़कर क्लास के लिए रवाना हुआ. आगे जाकर उसने लड़की को देखा भी, लड़की रजिस्टर को ही घूरे जा रही थी,एक रजिस्टर छांटकर.

ये सिलसिला चलता रहा.लड़का अब रोज जल्दी ही क्लास के लिए निकल जाता और क्लास के बाहर एक जगह पर खड़े होकर उसकी नज़रें उसी थोड़े गोलाई लिए हुए चश्मे और लड़की को खोजती. कभी दिख जाती थी कभी नहीं.जिस दिन नहीं दिखती थी लड़का क्लास में उस जगह की ओर वाइट बोर्ड से ज्यादा नज़रें फ़िराता जिस जगह को लड़कियों के लिए रिज़र्व कर दिया गया था.उनकी कुर्सियां गहरे भूरे रंग से पुती थीं और इंस्ट्रक्शन में लिखा था कि "भूरी कुर्सियां लड़कियों के लिए हैं" किसी दिन क्लास में भी वह लड़की उसे न दिखती बस भूरी रंग की कुर्सियां देखता रहता.

एक दिन क्लास के बाद डाउट क्लियर करने के लिए लड़का सर के केबिन में गया और उसे बाहर इंतजार करना पड़ा.दरवाज़ा खुला और अंदर से वही लड़की अपने दोस्त के साथ निकल रही थी. निकलते हुए उसने सामने बैठे हुए लड़के को पूरी नज़र से देखा.लड़के की नज़र भी उससे मिली.लड़की बाहर चली गई और लड़के को केबिन में भेजा गया. उसके डाउट क्या थे उसे भी अब याद नहीं.केबिन में गया और मुस्कुराते हुए सर से बोला "सर, आप पढ़ाते बढ़िया हो,मुझे लगता है कि मुझे आगे बैठना चाहिए.वाइट बोर्ड के करीब'' सर ने जवाब दिया "थैंक यू, आप मैनेजमेंट से बात कीजिए."  लड़के को वाइट बोर्ड के पास कम भूरी रंग की कुर्सियों के करीब ज्यादा जाना था, उन कुर्सियों से भी ज्यादा करीब उस लड़की के,जिसका नाम उसे अब तक नहीं पता था.

बंदा इश्क में हो या इश्क में कैद होने के करीब,उसकी कल्पना शक्ति के पंख बड़ी बड़ी उड़ाने भरता है.विज्ञान तो इसे 'डोपामाइन' और 'ओक्सीटोक्स्सिन' जैसे हॉर्मोन से जोड़कर तथा दो लफ़्ज़ों में समेटकर इस पचड़े से बच जाता है पर वो बंदा जो इन अनुभवों से गुजर रहा है उसके लिए तो कुछ भी सोच लेना जायज़ है. नहीं है क्या?

पिछले टेस्ट के टॉप 10 में 5 लड़के और 5 लड़कियां थीं. तीसरे स्थान पर लड़का था और 5 लड़कियां क्रमशः पहले, चौथे, सातवें, नवें, दसवें स्थान पर थीं. लड़के ने लड़की की गंभीरता, पहनावे, हाव-भाव, बात करने के लहज़े से ये कल्पना कर लिया था कि वो लड़की जरुर ही टॉप 10 में होगी और ये भी कि पहले या चौथे स्थान पर वो होगी. पहले स्थान वाली लड़की का नाम भाग्यश्री था और चौथे स्थान वाली लड़की का नाम सौम्या. लड़के ने उस लड़की को सौम्या माना और कवितायेँ लिखीं उसके नाम पर,गाने सुने और गानों की पंक्तियों को सौम्या से जोड़ा. 

जिस किसी ने भी कहा है कि "जंग और इश्क़ में सब जायज़ है." उसे अगर लड़के के सामने लाया जाए तो लड़का उसे चूम लेगा.

2 महीने गुजर गएँ.लड़के ने सौम्या के लिए जितनी भी कवितायेँ या उस जैसी ही कुछ लिखा था सब अब तीसरे महीने में उन्हें "भाग्यश्री" के नाम से बदलना पड़ा. लड़की का नाम भाग्यश्री निकला, वो उस बैच की टॉपर थी. 
लड़का तीसरे नंबर पर था. इश्क़ दोनों से कहीं ऊपर.

दोनों मिलने लगे. दोनों की कल्पना शक्ति ने ख़ूब पंख फैलाए. 12 महीने की उनकी कोचिंग का सफ़र बहुत ही शानदार होने वाला था. ऐसा केवल लड़का सोचता था. भाग्यश्री राजस्थान के उदयपुर से थी,लड़का उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले से. उनकी अपनी-अपनी कहानी पर कब एक दुसरे का भी हक़ हो गया, दोनों को इसका ध्यान ही नहीं रहा. हालाँकि वे क्लासेज के बाद जब भी मिलते पढाई की बातें ही ज्यादा होती. इतवार के दिन वे पास ही के पार्क में जाते थे और साथ बैठकर उन लड़कों को देखते जो बैडमिंटन खेल रहे होते थे. अपनी-अपनी कहानी भी कहते और एक दुसरे को और करीब पाते. भाग्यश्री की कहानी में आये नाम को लड़का बड़े ही ध्यान से सुनता और बाद में उस नाम के पीछे दिमाग खपाता कि भाग्यश्री ने किसका नाम लेते हुए अपने चेहरे को मुस्कुराने का मौका दिया था. 

लड़के की जासूसी और भाग्यश्री की साफ़गोई किसी नतीज़े पर नहीं पहुँची तब लड़के ने ऐसे ही किसी सर्दी के दोपहर को पार्क में ही भाग्यश्री को अपनी दिल की बात आँखों से बताने की सोची. उन फिल्मों को सरसरी तौर पर याद किया कि कैसे बोले बिना भी दिल की बात भाग्यश्री तक पहुंचाई जाए.अगले दिन लड़का पार्क पहुँच गया और बैठने के बजाय घुमते रहना चुना और इंतजार किया. भाग्यश्री उस दिन देरी से आई और उसे कोई और लेकर आया. पास आने पर भाग्यश्री ने साथ में आये लड़के को इस कहानी के लड़के से मिलाया, ये कहते हुए कि ये शोभित है और गुडगाँव किसी फलाना कम्पनी में काम करता है. भाग्यश्री के पिता ने शोभित को भेजा है कि जाके भाग्यश्री से मिल आओ. लड़का शोभित से मिला भी और उस फलाने कम्पनी के नाम को याद रखा और भरसक कोशिश कि मुस्कुराने की, भाग्यश्री से आँख मिलाने की,पर कामयाब नहीं हुआ. उस दिन बैडमिंटन खेलने वाले लड़के आए नहीं थे. पार्क में वही जाने-पहचाने चेहरे थे, पेड़-पत्तियां, ख़ाली बेंच, भागते बच्चे, भाग्यश्री-शोभित और शायद थोड़ा सा वह लड़का भी.

अगले दिन किसी कारण कोचिंग बंद थी. शोभित चला गया था. भाग्यश्री ने फोन करके लड़के को उसी पार्क में बुलाया. दोनों मिले और लड़के ने भाग्यश्री को उस फिल्म की कहानी सुनाई जो उसने स्कूल के दिनों में देखी थी पर भाग्यश्री को ये बताया कि जब उसका फ़ोन आया तो यही फिल्म देख रहा था. पूरे वक़्त लड़का बोलता रहा भाग्यश्री सुनती रही. आखिर में जाते वक़्त भाग्य श्री ने लड़के को बस सॉरी कहा. लड़के ने कहा कि कल वो मेरी वाली कॉपी लेते आना. भाग्यश्री खड़ी रही और लड़का जाने लगा. दूर जाके लड़के ने पीछे घूम के देखने की अपनी कोशिश पर काबू पाने में कामयाब रहा.

लड़के को अगले दिन कॉपी मिली और बहुत सारी भाग्यश्री में से उसने केवल थोड़े से गोलाई लिये कांच के चश्मे को नज़रों में समेटा. पढ़ाई अपनी रफ़्तार से चल रही थी. ये जरूर हुआ था कि लड़के ने कविता लिखना बंद कर दिया था, उस रास्ते से कभी नहीं जाता था जिधर पार्क था, पानी ज्यादा पीने लग गया था और किसी बड़े ने उसके हाव-भाव को देखकर यह राय दी थी कि सुबह सुबह योगा किया करो, तनाव कम होगा. तनाव कम करना था लड़के को ? भाग्यश्री उसका जवाब दे सकती है !

लड़के के लिए भाग्यश्री अब उन कईं लड़कियों के जैसी ही हो गई थी. जो ख़ुशी-ख़ुशी क्लास आती और परीक्षा की चिंता लिये अपने रूम लौटती. 12 महीने बीतने आये. भाग्यश्री और लड़के की तैयारी अच्छी हुई थी. एग्जाम के दिन वे मिले भी. एक दुसरे को शुभकामनाएं दी.

सिविल सर्विसेज के लिए दोनों क्वालीफाई कर गये. लड़की को आईपीएस में जाने का मौका मिला, लड़के को आईएएस. लड़की गुजरात कैडर के हवाले और लड़का हरियाणा कैडर के हवाले. कुछ ही सालों की मेहनत से दोनों केन्द्रीय सरकार के अधीन आ गये, इत्तेफ़ाक से एक ही विभाग में. इस दौरान वे जुड़े नहीं रहे, करीब 4 साल बाद मिले थे. लड़के की नज़र में भाग्यश्री का चेहरा मुरझाया हुआ लगा. दोनों जब एक दुसरे की नई कहानियों से रूबरू हुए तो पता चला कि भाग्यश्री का शोभित से तलाक हुए 2 साल हो चुके हैं. लड़का अभी अकेला ही है और अब भी कवितायेँ लिखना शुरू नहीं किया है, हाँ ग़ज़ल सुनने का आदी हो गया है.

भाग्यश्री न के बराबर बोलने लगी थी और मुस्कुराना तो वो जानती ही नहीं थी. लड़के ने बहुत कोशिश कि की भाग्यश्री पहले वाले दौर में वापस आ जाए पर ये हो न सका. 

ऐसे ही किसी शाम को बालकॉनी से चाय पीते हुए लड़के ने सामने के मैदान में बच्चों को बैडमिंटन खेलते देखा और कहीं यादों में गुम हो गया. उस रात को लड़के ने अरसे बाद एक कविता लिखी, भाग्यश्री के लिए. अगले दिन भाग्यश्री के टेबल पर कविता वाली पेज रख आया. कविता यूँ थी-

                     अमृता प्रीतम को जानती हो ?
                                  साहिर को ?
                                 इमरोज़ को ?
                               एक कहानी सुनो-
             एक लड़की, अमृता प्रीतम को इसलिए पढ़ती 
               कि उसका साहिर उसे छोड़ के जा चूका था.
                       वो लड़की अमृता प्रीतम के उन 
                    कविताओं और कहानिययों को पढ़ती
                      जब साहिर के चले जाने के बाद
                          अमृता प्रीतम ने लिखी थी
                       उस रास्ते को ढूंढती जिस रास्ते
                        अमृता प्रीतम को इमरोज़ मिलें.

                 उस लड़की की तलाश एक इमरोज़ की है 
                            जो उसके लिए रात के
                          किसी भी पहर चाय बना दे.

उस पेज के आखिर में एक ख़त भी लिखा हुआ था जो कभी अमृता प्रीतम ने कभी इमरोज़ के लिए लिखी थी-

           

                 मेरे इमा

तुम्हारी जैसी सोच, तुम्हारी जैसी शख्सियत अगर इस दुनिया में न होती, तो तुम्हीं बताओ, कहाँ जाती मैं.

                        अच्छा, अब जल्दी से घर लौट आओ.

                                                     तुम्हारी माजा.

लड़के की कोशिश रहने लगी कि उसका दिल इमरोज़ जैसा हो जाए और उसी दिल के कोने में भाग्यश्री रहें. सारे गम, सारी परेशानी को लड़के की पीठ पर लादकर मुस्कुराने लगे.

~ मन