4 नवंबर 2020

गले की ख़राश

उसके लिए बनारस एक समय पर धड़कते दिल के समान हो गया था तो वहीं बनारस उसके जीवन के लिए बची उम्र के लिए नरक बन गया।

मान्या नाम था लड़की का। इलाहाबाद जब किसी कंपीटिशन का एग्जाम देने गई थी एग्जाम तो ठीक ठाक हो गया। सेंटर से जब बाहर निकली तो गले में कुछ अजीब सा हुआ और लगी खांसने। पानी की सख़्त ज़रूरत महसूस हुई उसे और अगले ही पल विक्रम नाम के लड़के ने पानी की बोतल उसकी तरफ़ बढ़ा के अपने बैग से टिफिन निकालने लगा। मान्या को जब गले में पानी से सुकून हासिल हुई तब उसने तिरछी नज़र से ही विक्रम को देखा जो टिफिन निकाल के सड़क पार बने पार्क की तरफ़ देख रहा था। जहाँ वो चैन से बैठ कर बड़ी दीदी के हाथ के बने पराँठे और माँ के हाथों से बने आचार का लुत्फ़ लेता। मान्या ने धन्यवाद कहते हुए बोतल वापस करी और सड़क के इसी किनारे आगे बढ़ गई, विक्रम सड़क पार पार्क में ख़ुद को ले गया।

थोड़ी ही देर बाद मान्या चार समोसे खरीदकर विक्रम के सामने बेंच पर बैठी मुस्कुरा रही थी और रह रहकर गर्दन पर हाथ फेर ख़राश से बचना चाह रही थी। दो समोसे विक्रम के हिस्से गए और एक पराँठे मान्या के हिस्से तब जाकर विक्रम ने बात करने, एक दूजे को जानने की पहल करी

"नाम क्या बताया था तुमने पानी पीते वक़्त ?"
"चंपा"
"अच्छा हाँ, चंपा"
"कुछ भी ? कब बताया नाम मैंने अपना?"
"अच्छा नहीं बताया था क्या, लो अब बता दो"
"मान्या"
"अच्छा नाम है ना ?
"वो तो है"
"मेरा जानना चाहोगी?"
"नहीं जानना था पर आचार बढ़िया है, तो बता दो नाम भी"
"विक्रम"
"ठीक ही नाम है, कोई ख़ास नहीं"

दोनों ने खाना ख़त्म किया, विक्रम को चाय नहीं कॉफी बेहद पसंद और मान्या  को ठीक इसका उल्टा। दोनों ने एक-एक कप कॉफी और चाय ली और वापस पार्क में गए इस बार दोनों ने घास पर पैर फैलाकर बैठना चुना। संयोग देखिए, चाय विक्रम के हाथों में गई थी और कॉफी मान्या के हाथ में। विक्रम को ध्यान नहीं ये पर मान्या ने पहले ही ग़ौर कर लिया था। तो जल्दी से मान्या ने कॉफी जूठी करके विक्रम से कहती है- "अरे मैं तो कॉफी पी ली। पर कोई ना, ऐसा भी होना चाहिए, वैसे कॉफी अच्छी बनी है" गले की ख़राश को राहत मिली और मान्या को ये संकेत कि चाय की तुलना में कॉफी से ख़राशें जल्दी दूर होती हैं। या क्या पता विक्रम जैसा साथी साथ बैठ के चाय-कॉफी पीए तब ख़राशें जल्दी दूर हो जाती हों। मान्या को नहीं पता।

विक्रम ने भी चाय ख़त्म करी कैसे भी और दोनों ने एक साथ टाइम देखा तो नेक्स्ट पेपर के लिए ज़्यादा टाइम बचा नहीं था। दोनों ने वापस सेंटर में जाने को चुना उसके पहले विक्रम ने मान्या के लिए एक बोतल पानी खरीद दी और कहा कि एग्जाम के बाद इसके पैसे दे देना। दोनों हँसते हँसते सेंटर में घुसे और बाहर केवल विक्रम हँसता हुआ निकला। गले की दिक्कत और कान दर्द ने मान्या के दूसरे पेपर को ख़राब करवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

दोनों बाहर निकले। फेसबुक पर दोस्त बने और मान्या बनारस अपने चाचा के घर के लिए निकली और विक्रम स्कूल के ज़िगरी दोस्त की शादी में जाने के लिए एयरपोर्ट निकला जहाँ से बंगलुरू के लिए उसकी फ्लाइट थी।

मान्या शुरू से ही अपने घर(चंदौली) न रहकर बनारस में ही चाचा के साथ रही। घर में बस चाचा, उनकी दो छोटी बेटियाँ, एक मिठ्ठू तोता और मान्या थी। चाची छह महीन पहले ही गंगा में नौकायन के लुत्फ़ लेने के क्रम में संतुलन बिगड़ा और सुबह सवेरे का वक़्त होने की वज़ह से सुनसान घाट पर कोई नहीं था जो बीच गंगा में कूदकर चाची को बचा पाता। तीनों बहनें चिल्लाती रहीं और चाची का जाना तय था या तय किया गया था, वो चली गईं ठीक वैसे ही जैसे शाम को सूरज ढल जाता है और बहुतों को ख़बर नहीं लगती।

मान्या शुरू से ही पढ़ने में औसत ही थी। बोलती कम सोचती ज़्यादा। कोर्स की किताबों से इतर कुछ भी पढ़ने का शौक नहीं ना ही टीवी देखने का न गाने सुनना। गमले में फूल लगाती थी और छत से नीचे गली में खेलते बच्चों को बिना हँसे देखती रहती। 5-7 दिन पर गंगा घाट चली जाती अकेले ही। लौटते वक्त लंका पर चाय पीती और घर लौट आती जहाँ बेसब्री से दोनों बहनें और तोता दरवाज़े की तरफ़ देखता रहता था।

दोनों बेटियों से ज़्यादा चाचा मान्या की ख़बर रखते, दुलारते और कहते कि इन दोनों बहनों के पीछे अपना जीवन ख़राब न करना।  मान्या की आदत थी सुबह जल्दी उठने की। सुबह जल्दी उठ पहले ख़ुद के लिए स्पेशल चाय बनाती फ़िर बाद में चाचा जी और बहनों के लिए।

मान्या जब रसायनशास्त्र से ग्रेजुएशन पूरी कर ली तब पीजी में एडमिशन लेकर कंपीटिशन की तैयारी में लग गई। चाचा जी के दोस्त अक्सर जो मान्या के हाथ की बनी चाय पीने आते थे, उन्होंने सुझाव दिया था कि टीचर के जॉब के लिए तुम नहीं बनी हो बेटी, तुम बैंक में जाओ, अफ़सर बनो। चाचा की रजामंदी मिल गयी तो मान्या तैयारी करने लगी। मान्या के गले की ख़राश वाली दिक्कत चाची के रहते ही शुरू हुई थी। लाख अब चाचा जी मान्या का ख़्याल रखते थे पर मान्या ने गले की ख़राश वाली बात चाचा जी को कभी नहीं बताई और दोनों बहनों को भी हिदायत दी थी कि चाचा जी तक ये बात न पहुँचे।

विक्रम और मान्या की फेसबुक पर बात शुरू हुई और जल्दी ही फ़ोन पर भी बातें होने लगी। दोनों को दोनों ही अच्छे लगने लगे। नए फ़लक,  नए आसमान, नई ज़मीन सबकुछ उन दोनों के लिए नए नए होने-लगने लगे। व्यक्तिगत देखे सपने दोनों ने साझा कर लिया। पंख लगे दोनों के ही और नई उड़ान दोनों के मनमाफ़िक होने लगीं। जिस उम्र में दोनों थे उसमें इन बातों का हो जाना बहुत ही सतही बातें हैं। इसे किसी भी दृष्टिकोण से तूल देने की कोई भी कोशिश करना प्रेम नामक चिड़िया के साथ धोखा है।

विक्रम के सभी रंग मान्या पर चढ़ने लगे और मान्या के भी सतरंगी रंग विक्रम पर। इस दरम्यान विक्रम दिल्ली से कईं दफ़ा मान्या से मिलने बनारस भी गया। दोनों बहनों को दोनों के बारे में सबकुछ पता था। चाचा जी को विशेष मुहूर्त में ख़ूब तैयारी के साथ बताने की मान्या ने तय कर रखा था।

मान्या के गले की ख़राशें बढ़ने लगी। कान में भी दर्द अब तेज़ होने लगा था और हर 10-12 दिन में मुँह में छाले होने लगे थे।

मान्या की माँ, मान्या जब 3 साल की थी तभी चल बसी थीं। गले के कैंसर की वज़ह से। और अनुवांशिक रूप से गले का कैंसर मान्या में भी संचिरत हो आया था और पल रहा था। मान्या ने चाचा से या किसी को भी बताई होती या डॉ से राय ली होती तो हो सकता था कि कैंसर शुरुआती दौर में पकड़ में आ जाता और इलाज संभव हो सकता था।

चाची जिस दिन डूब के मरी थी, उसके एक रोज़ पहले ही चाचा ने बुरी तरह से चाची को पीटा था जब केवल ये सब देखने वाला मान्या और मिठ्ठू तोता ही था। बीच बचाव में मान्या के गले पर चोट लगी थी तब से ही मान्या के गले की ख़राशें बढ़ने लगी थीं और उसके गले की मोटाई भी। एग्जाम वाले दिन हद से बाहर जाते दर्द के बावजूद मान्या ने न किसी को ख़बर लगने दीं ना ही डॉ से मिली। कम से उसे विक्रम से तो ये बात नहीं ही छुपानी चाहिए थी।

विक्रम जाना तो सही पर तब जब मान्या के गले का कैंसर उसके शरीर के ख़ून में मिलकर आधे से ज़्यादा शरीर तक पसर चुका था। चाचा भी जान ही गएँ। चाचा के दोस्त भी, चाचा के दोस्त भी, पड़ोसी भी। डॉ को दिखाया गया तब तक देर हो गई थी। वहीं.. चिड़िया चुग गई खेत तो अब क्या ?

दोनों छोटी बहनें कुछ समझ ही नहीं पाई। पहले माँ को अचानक ही खोया फ़िर माँ से भी प्यारी दीदी को ऐसे खोते हुए, दूर जाते हुए, दर्द से कराहते हुए देख रही थीं। विक्रम बड़ी हिम्मत जुटा के मिलने आता था मान्या से। मिलता कम देर ही था ज़्यादातर वक़्त गंगा किनारे जाता, वहाँ बैठता और कभी-कभी  रोता और मान्या के चाचा को कोसता।


समन्दर जितने दर्द को झेलकर उससे पार न पाकर एक दिन मान्या भी चली गई ठीक वैसी ही जैसे लाखों लोग गुमनामी में कैंसर की जंग हारकर दुनिया को विदा कहते हैं और क़रीबी लोगों को छोड़ कोई नहीं जानता कि कहीं कोई कैंसर की वज़ह से नहीं रहा। ठीक ठीक वैसे ही जैसे सूरज डूब जाता है चलते चलते अचानक ही और बहुतों को भनक तक नहीं लगती।

सबकुक धीरे धीरे फ़िर से पटरी पर आने लगता है, जीवन की यहीं सबसे ख़ूबबसूरत बात है। ज़िन्दगी की ट्रेन ज़्यादा देर तक नाउम्मीदी की प्लेटफॉर्म पर नहीं टिकती। चाचा पहले से ज़्यादा धार्मिक हो गएँ। पाप के फल भोगने के डर से आदमी माला जपने को विवश हो ही जाता है। पाँचों पहर की नमाज़ अदा करना ज़रूरी काम हो जाता है। 

दोनों छोटी बहनें बड़ी हो रही हैं, दुनिया से रूबरू हो रही हैं। कहीं कोई तो आसमान है जो उनके ही उड़ने के लिए उनके इन्तज़ार में है। 

विक्रम एयर फोर्स के वेस्टर्न कमांड में अफ़सर बन गया है और दुनिया की नज़र में, अपने दोस्तों, क़रीबियों की नज़र में उसके जितना ख़ुश इंसान शायद ही कोई हो। पर असलियत तो विक्रम जानता है और वो मिठ्ठू तोता जो मान्या के न रहने के बाद विक्रम के घर पर नया ठिकाना पा लिया था। 

विक्रम के घर वाले विक्रम के लिए लड़की ढूँढ रहे हैं। लकड़ी कैसी होनी चाहिए इस सिलसिले में विक्रम ने अपनी राय साफ़ रख दी है कि माँ को पसंद आ जाए उस लड़की का हाथ थाम लेगा वो पर एक शर्त के साथ कि लड़की का कोई चाचा नहीं होना चाहिए तब ही...

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30 अक्तूबर 2020

विकल्प है ?

जो बातें आपके अंदर नहीं हैं, जिन इच्छाओं का घर आपका दिलोदिमाग कभी हो ही नहीं सकता उन इच्छाओं का जन्म भी बाज़ार आपके अंदर देर सवेर करा देगा, यक़ीन मानिए। बाजार(पूँजीवाद) की ताक़त के क्या कहने। यूँ समझिए कि जिस 20वीं सदी का इतिहास 'समाजवाद' के बिना पूरा नहीं हो सकता आज वहीं समाजवाद लाइब्रेरी की किताबों में धूल फाँक रहा है। इतिहास के शोधार्थी जब 20वीं सदी के बारे में कुछ जानना चाहेंगे तो अब मुमकिन है कि उन्हीं लाइब्रेरी के समाजवाद से भरी अलमारी के सामने रखे टेबल कुर्सी पर बैठ लैपटॉप में समाजवाद के बारे में जानेंगे। पूँजीवाद और पूँजीवादी ताकतों को हल्के में लेने की भूल दिन में एक-आध बार ही कीजिए, फ़िर तो आगे आप दिन में तो क्या महीनों तक किसी और विचारधारा की बात पूँजीवाद के बात करने के बाद ही करेंगे। तय है ये!

यहाँ न तो पूँजीवाद की महिमामंडन की जा रही है न ही उसकी आलोचना, जो जिस रूप में सामने है उसका बखान भर है और पसरती जा रही चीज़ों का फैलाव (चाहे जिस रूप में हो) का महिमामंडन क्यों न की जाए? मैं सोचता हूँ और लायक शख़्सियतों (जैसे कि मेरा छोटा भाई) से इसपर डिस्कशन करता ही हूँ, ये सवाल रखता ही हूँ कि दुनिया कैसे काम करती है ? ये सब कुछ पूर्वनियोजित है या प्रकृति ऐसा ही चाहती है ? जवाब गोल-मटोल तर्कों और उलझनों के रूप में पाता हूँ। दुनिया है, यहीं बहुत है अबतक तो :)

हम अपनी बात करें ? ग्लोबल हो चुकी दुनिया में हम कहाँ हैं ? हमारे ऊपर अभी भी कोई दवाब काम करता है तब हम हेलमेट पहन लेते हैं, सीट बेल्ट लगा लेते हैं, कोई देख रहा होता है तो हम उठकर कचरे के डिब्बे में कचरा डालकर सीना चौड़ा करके उस जगह वायस आ जाते हैं जहाँ पर कचरा पैदा किया था जबकि हो सकता था कि वो कचरा बने ही ना, अगर हम पूंजीवाद के फ़ेरा में पड़ के अपने अंदर इच्छाओं को जगाया न होता तो। होने-जाने को कुछ भी हो सकता है। हाँ, तो हम कहाँ ठहरते हैं बाकी दुनिया के सामने ? वहीं दुनिया जिसमें जर्मनी भी है, जिसको ज़्यादातर लोग याद करते हैं तब हिटलर ही सामने आता है। हिटलर का पक्ष नहीं ले रहा हूँ, ये कह रहा हूँ कि द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात मित्र देशों ने ख़ासकर दी ग्रेट ब्रिटेन ने जर्मनी की राजधानी बर्लिन शहर में एक भी ऐसी इमारत नहीं छोड़ी थी जो ठीक हाल में खड़ी हो। और आज आप जर्मनी को देख लीजिए, वो कहाँ है हम कहाँ है और आगे अभी कहाँ को जा रहे हैं। हिटलर की बात आई तो कह दूँ कि कहीं पढ़ा था किसी आर्टिकल में कि हिटलर तीसरी दुनिया के देशों के लिए ईश्वर से कम नहीं। हिटलर ब्रिटेन के हालात को खस्ताहाल नहीं करता तो अफ्रीकी देशों का तो पता नहीं हम तो क़तई 1947 में आज़ाद नहीं होते। बाकी ये छोड़िए क्या होते क्या नहीं, अब जो हैं और जो होने वाले हैं के बीच के समय को, विचारधारा को कैसे आगे किस मुक़ाम पर लेके जाना चाहते हैं उसको लेकर सोचना(?) होगा। वरना कम से कम मैं तो नहीं ही चाहूँगा कि मेरी अगली पीढ़ी जब ऐसा ही कुछ लिखे तो उसमें ये ज़िक्र करें कि मेरे इस लिखे में और उसके टाइम पीरियड में कोई ख़ास अंतर नहीं आया है।

कमियों को गिना के पतली गली से निकल जाना बहुत से लिखने वाले और कथित बुद्धजीवियों का स्पेशल टैलेंट(?) है। मैं सही(?) करने के कुछ सुझाव दूँगा यहाँ तो उससे ये कदापि न मान लिया जाए कि मैं अघोषित रूप से ख़ुद को बुद्धिजीवी कहलवाना चाह रहा हूँ, बाकी तो आप जानते ही हैं सब।

एक सुझाव तो इस उदाहरण से ही समझिए-
एक पढ़ा लिखा आदमी कभी भी रोड के बीच में (या उस जगह जहाँ किसी के लिए वो बाधा बने) खड़ा होकर के किसी से बात नहीं करने लगेगा। ज़रूर पहले वो सड़क के किनारे जाकर ही अपने ज़रूरी काम करेगा और इस तरह ट्रैफिक की समस्या कुछ हद तक सुलझ सकती है। और हाँ, बुद्धि पढ़ने लिखने से ज़रूर आती है पर बुद्धिमान होने के लिए पढ़ाई-लिखाई अनिवार्य घटक नहीं है। ऐसे बेशुमार लोग हैं जिन्हें पढ़ने-लिखने का कभी अवसर नहीं मिला तब भी वो साइंटिफिक टेम्परामेंट से लबालब भरे होते हैं। गाँव में किसी किसान से मिलिए जो शिद्दत से खेती करते हुए जीवन यापन कर रहा हो, पता चल जाएगा।

दूसरा सुझाव जो कि काम का नहीं है, छोड़ सकते हैं-
हम उस समय काल में हैं जहाँ दूसरों के लिए सोचना पाप है, सच में पाप है। और दूसरों के लिए न सोचने वाली बीमारी बहुत तेज़ी से फैली है। फ़िर इन लोगों (जिनमें मैं भी हो सकता हूँ) ने जो वातावरण का निर्माण किया है उसमें वो लोग भी कोई काम के नहीं जो दूसरों का भला चाहते हैं जो दूसरों के लिए सोचते हैं। ऐसे लोग कम नहीं हैं पर हमने उन्हें मजबूर किया है कि भाई ये क्या शौक़ पाल रहे हो दूसरों के लिए सोचना। पगलेट हो का ? अपना जीयो, बच्चे का ऊपरी तौर पर थोड़ा सोच लो और निकलो जल्दी से, इस जगह से।

तीसरा सुझाव पर्यावरण को लेकर है-
हम मनुष्य वैसे तो बहुत ही कम समय के लिए पृथ्वी पर आते हैं। मजे करो और निकलो, आने वाली पीढ़ी जो भुगतेगी वो ही जाने समझे/झेले, हमको क्या ? हमारी गुजरी हुई पीढ़ी ने हमारे लिए सोचा था क्या ? जैसे को तैसा
और ये भी समझिए कि राइट विंग की सरकारें हर जगह आती जा रहीं हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, हमारा भारत महान तो इन राइट विंग विचारधारा वाली सरकारों की प्रायोरिटीज़ में पर्यावरण बहुत बाद में आता है, आता है यहीं सुकून की बात नहीं है क्या, मुस्कुराइए ज़रा :)
पर्यावरण को लेकर हम क्या कर सकते हैं ये आप जानिए। अपने फूल से खिलते बच्चों के, छोटे भाई-बहन के चेहरे देख के जानिए कि क्या कर सकते हैं।

चौथा सुझाव राज्य और जनता को लेकर-
गाँधी का रामराज्य के चरम को लें या फ़िर मार्क्सवाद के चरम सीमा 'साम्यवाद' को लें (समाजवाद का अगला और अंतिम चरण है साम्यवाद, समाजवाद ही आधे रस्ते में दम तोड़ दिया तो साम्यवाद तो अभी दूर की कौड़ी  है) तो गाँधी और मार्क्स का मानना था कि राज्य का होना ही दुर्भाग्य है। राज्य  का लोप हो जाना चाहिए मतलब कि जनता ख़ुद ही ख़ुद को शासित करे। और समाजवाद में तो धर्म की सार्वजनिक अनुपस्थिति की बात कही गई है जबकि साम्यवाद में धर्म का मनुष्य के मानस पटल से ही विलुप्त हो जाने की बात कही गई है। तो देख रहे हैं ना.. मार्क्स ग़लत नहीं बोले हैं कि धर्म, अफ़ीम का काम करता है।

जनता पहले है राज्य बाद में। जनता ठीक हो जाए तो न पुलिस की ज़रूरत है ना पुलिस के लिए भर्ती निकालने की। फ़िर भर्ती घोटाले भी नहीं होंगे। पर वहीं है ना.. हम अभी एक लड़का लड़की को अकेले में साथ बैठे देख लें(भले ही वो भाई- बहन ही क्यों न हो) तो क्या-क्या सोचने लगते हैं वो बताने की ज़रूरत है मुझे ? हाहाहा... तो ऐसे सोच वाले समाज में मैं साम्यवाद जैसी व्यवस्था लाने की, अमल करने की सोच रहा, सुझाव दे रहा हूँ। फ़िर से मुस्कुराइए ज़रा :)

बाकी तो सब ठीक ही है। अक्टूबर बीतने को है, नवम्बर दीवाली-छठ में और दिसम्बर सूरज को दिख जाने के इन्तज़ार में बिता देंगे। नए साल पर उम्मीद कर करेंगे कि करोना को देश निकाला मिले। उम्मीद करना ठीक ठीक वैसा ही है कि गमले में मिट्टी डाले बिना उसमें बीज डाल देना और सपने देखना कि फूल-फल आएँगे ही एक दिन। और किसी किसी के आ भी जाते हैं, यक़ीन कीजिए। करना ही पड़ेगा, आपके पास और कोई विकल्प है ? 

एक विकल्प है कि मेरे इस पूरे लिखे को मेरा व्यक्तिगत मसला मान लीजिए और फटाक से भूल जाइए, आप आके पूरा पढ़ लिये और क्या चाहिए मुझे, एक लिखने वाले को। है कि नहीं ?


:)

13 सितंबर 2020

गुरु गुण लिखा न जाय...

कबीर कहते हैं- सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय। सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय।। अर्थात पूरी पृथ्वी को कागज, सभी जंगल को कलम, सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते।
      

  एक माँ, जो स्कूल से बेटे की शिकायत भरे ख़त को बदल के पढ़ देती हैं कि आपका बेटा बहुत ही क़ाबिल है, इसे घर पर ही रखिए। वहीं बेटा जब ख़त की असलियत तक पहुँचता है तो दंग रह जाता ये पढ़कर कि स्कूल वाले उसे मंदबुद्धि मानते और स्कूल के लायक नहीं समझते... आगे वहीं बेटा थॉमस एल्वा एडीसन बनता है जिनके नाम 1093 खोजों के पेटेंट दर्ज़ है।
      

  एक पिता जो अपने बेटे के लिए स्कूल को ख़त लिख के कहता है- "मेरे बेटे को दिखा सको तो दिखाना, किताबों में छिपा खज़ाना, उसे ये बताना कि बुरे आदमी के पास भी अच्छा हृदय होता है। आप उसे बताना मत भूलियेगा कि उदासी को किस तरह प्रसन्नता में बदला जा सकता है और उसे ये भी बताना कि कभी रोने का मन करे तो रोने में शर्म बिल्कुल ना करे।" उस पिता का नाम अब्राहम लिंकन है।
      

  'पिता के पत्र पुत्री के नाम' 1928 से अगले 3 साल तक जवाहर लाल नेहरू अपनी 11-12 साल की बेटी इंदिरा को अलग-अलग जेलों से ख़त लिखते रहें और नन्हीं सी जान को दुनिया के बारे में बड़ी ही बारीक़ी से हर पहलू को छूते हुए, दुनियादारी से रूबरू कराते रहें।
       

 मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'बड़े भाई साहब' से वो सीखा जा सकता है जो कोई महाग्रंथ नहीं सीखा सकता कभी!
      

  किशोर दा, उनसे सीखा जा सकता है- हर हाल में जीवन का आनंद लेना। कोई जब उनके लिए ये कहता- "एकदम बच्चों जैसे थे किशोर। छोटी छोटी बातों से बहुत ख़ुश हो जाते थे। कभी कभी बारिश को देख इतना ख़ुश हो जाते मानो पहली बार देख रहे हों।" और ये भी कि "महान लोग समय के साथ-साथ और महान होते जाते हैं, क्योंकि आप यह अनुभव करते हैं कि वो कैसे काम करते हैं। यही चीज़ किशोर कुमार के साथ भी हुई।"
     

  शिवमंगल सिंह सुमन जी की कविता 'वरदान माँगूँगा नहीं' बहुतों में से एक मेरे लिए भी जीवन के समंदर में भटक चुके जहाज़ के लिए प्रकाश स्तंभ साबित हुई- "क्‍या हार में क्‍या जीत में किंचित नहीं भयभीत मैं, संघर्ष पथ पर जो मिले, यह भी सही वह भी सही.. वरदान माँगूँगा नहीं।"


परिस्थितियाँ हमें उन अनुभवों से रूबरू कराती हैं जिन तक पहुँचने में हमें कईं साल लग जाए.. बिहार में जन्म लेने के बाद बचपन के कुछ ही हिस्से जी पाया था कि नाना जी का फ़रमान ज़ारी हो गया- जाओ राजस्थान जाओ..यहाँ रहे तो बिगड़(?) जाओगे! और मैं चला गया राजस्थान(नसीराबाद, अजमेर) 12 साल की उम्र में, जहाँ मुझे संजय अंकल जी जैसे शख़्स मिले जो बिहार के ही बेगूसराय जिले से हैं. उनकी बातें कभी सिगरेट पीते हुए मेरे मन में दर्ज़ की जातीं तो कभी तंबाकू रगड़ते हुए कहते तो कभी टेस्ट मैच देखते हुए कभी चेस खेलते हुए. एक बात जो मेरे मन में टँगी हैं उनकी- "उम्मीद नहीं रखनी चाहिए किसी से भी, दुःख की वज़ह है ये." आज मैं जिस किसी भी स्तर पर शतरंज खेल लेता हूँ इसके पीछे संजय अंकल जी ही हैं. उस वक़्त वो कभी कभी ज़बरदस्ती शतरंज खेलने के लिए कहते क्योंकि उन्हें कोई और खेलने लिए मिलता नहीं था जैसे आज मुझे नहीं मिलता तब समझ आता है कि इस वक़्त मुझे भी कोई मन्टू मिले तो मैं भी उसके साथ ज़बरदस्ती खेलूँगा...  हाहाहा...

             श्रीराम जी गुरु जी, शुरुआत में आदर्श विद्या मंदिर के स्कूल में दाख़िले की वज़ह से आप जानते भी होंगे कि इन स्कूलों में सर को गुरु जी और मैडम को दीदी कहना होता है. यहाँ तक कि अपने से बड़े सहपाठी को भैया और दीदी कहना अनिवार्य होता है। कुछ भी करने से पहले संस्कृत का एक एक मंत्र तय है उस काम के लिए। श्रीराम जी गुरु जी, उनको लेकर ये लिखते हुए भावुक हो रहा हूँ। इतना जानिए कि "किसी पर हर तरीक़े से जब भरोसा किया जाता हैं ना तब वो शख़्स क्या कुछ करने के क़ाबिल नहीं बन जाता।" बस ऐसा ही कुछ भरोसा श्रीराम जी गुरु जी का मुझपर था!

भय का सकारात्मक पहलू क्या और किस हद तक हो सकता है ये नाना जी से सीखा और अभी भी सीख रहा हूँ। 

नानी, जो मेरी माँ से भी पहले माँ है, उनके होने से ही मैं हूँ... और क्या कहूँ ?

कुछ दोस्त, नहीं नहीं कुछ तो नहीं कहा जा सकता, बहुत सारे हैं.. जिनमें लड़के लड़कियों की बराबर अनुपात तो नहीं पर आस पास के अनुपात में ज़रूर है और दोस्तों की अहमियत के बारे में क्या लिखना ? दोस्तों का जीवन में होना ही नेमत है, इनायतें हैं :)

छोटा भाई, रवि, जिसके लिए मैं कहता भी हूँ और सोचता भी हूँ कि इसे बड़ा होना चाहिए था। पर कोई नहीं! रवि, सिनेमा से जुड़े विषयों में ख़ुद का भविष्य देखता है, देख रहा है। तो स्वतः ही एक ऐसी ज़िम्मेदारी(?) मेरे कंधे पर आ जाती है कि रवि सिनेमा से जुड़ा हुआ कोई भी सवाल कभी भी पूछ ले तो मैं बताने के क़ाबिल रहूँ, ज़्यादातर बारी कामयाब रहता हूँ, ऐसा मेरा मानना है.. हाहाहा

दीदी, मधु दीदी.. जिनके रेडियो पर विविध भारती सुनने या कोई कोई फ़िल्म को रेडियो पर सुनने की आदत ने, मुझ अबोध बालक(?) के दिलोदिमाग पर ऐसी लकीरें खींची कि ताउम्र गीत-संगीत-सिनेमा से मैं ख़ुद को अलग रखने की सोच भी नहीं सकता.. और सोचना है भी नहीं।

छोटी बहनें- सब्बू, सोनी, स्नेहा। इनका होना जैसे बचपन के उन पलों को फ़िर से जीने जैसा है जिन पलों को उस वक़्त में शायद परिस्थितियों ने चाहा नहीं था..या जो कुछ भी।

माँ-पापा ❤

सोशल मीडिया के हमराही- टेक्नोलॉजी दोधारी तलवार है, आप इसका इस्तेमाल कर प्लूटो तक जा सकते हैं और इसी का इस्तेमाल कर गर्त(?) में आसानी से जा सकते हैं, आपके हाथ में हैं। चुनाव का सारा मामला हमारे हाथ में ही होता है, कभी कभार वो चुनाव किसी दूसरे के मन के रास्ते से हमतक आने लगता है पर रहता चुनाव अपना ही। जो कोई भी शख़्स सोशल मीडिया के दरवाज़े से मेरी ज़िंदगी(?) में दाख़िल हुए या जिनको मैंने कहा आगे होके कि आप आ जाइए, उन सबका तहेदिल से शुक्रिया... कईयों को उनके नाम की किताबें दे चुका हूँ, कईं ऐसे हैं जो मिलेंगे तो किताबें दे दूँगा 💃

साहित्य- इसके दायरे में मैं सबकुछ को मानता हूँ, सबकुछ। सआदत हसन मंटो का लिखा भी और छोटे छोटे बच्चों का खिलखिला के हँसना भी। माँ का ये कहना भी कि "दही-भूजा खा ले।" साहित्य न होता तो जीवन क्या होता... डूबोया मुझको होने ने, कुछ न होता तो ख़ुदा होता _/\_

...और आख़िर में रोजर विलियम्स की कही बात- "दुनिया का सबसे बड़ा अपराध है अपनी क्षमता का विकास न कर पाना।"

        ...और भी बहुत जने, जिनसे सीखने को बहुत कुछ मिला और बहुत कुछ मिलना अभी बाक़ी है, लेकिन उन्हें गुरु(?) का दर्ज़ा देना अभी जल्दबाज़ी होगी। 

और इस बात की गाँठ- "..तेरे अंदर एक समंदर, क्यों ढूँढे तब्के-तब्के"


       कबीर के ही दोहे से ख़त्म करते हैं इसे- "मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर। अब देवे को क्या रहा, यो कथि कहहिं कबीर।। अर्थात यदि अपना मन तूने (गुरु) किसी को दे दिया तो जानो सब दे दिया, क्योंकि मन के साथ ही शरीर है, वह अपने आप समर्पित हो गया। अब देने को रहा ही क्या है।


:)



गुनगुना लीजिए :)


आते-जाते, ख़ूबसूरत, आवारा सड़कों पे

कभी-कभी इत्तेफ़ाक़ से...


आते-जाते, खूबसूरत, आवारा सड़कों पे

कभी-कभी इत्तफ़ाक़ से कितने अनजान लोग मिल जाते हैं


उनमें से कुछ लोग भूल जाते हैं, कुछ याद रह जाते हैं

उनमें से कुछ लोग भूल जाते हैं, कुछ याद रह जाते हैं...


मन :)

5 सितंबर 2020

फ्रेंड रिक्वेस्ट

पहली नज़र का प्यार कहा जा सकता है। यश राज बैनर की फिल्मों की देन थी कि खेलने कूदने खाने की उम्र में प्यार-मोहब्बत की बातें। वहीं नदी, पहाड़, बारिश, झरने, छत, मैदान, पेड़ के नीचे हीरो-हीरोइन गाना बजाना और आँखें चार करना। नितिन का भी कुछ यूँ ही था ज्योति के साथ।

दोनों क्लास के टॉपर थे पर नितिन जानबूझ कर सवाल ग़लत कर आता और ज्योति को टॉप होने देता। राहुल 4th, नितिन के लिए 'रांझणा' के मुरारी जैसा। 4th इसलिए कि क्लास में चार राहुल थे। कहने के लिए राहुल और नितिन पक्के जिगरी। एक को काटो तो दूसरे से खून निकलता टाइप।

राहुल जानता था कि नितिन ज्योति के लिए मरा जा रहा है। ज्योति भी जानती थी। क्लास में सभी जानते थे। श्वेता जो ज्योति की जिगरी थी, इस प्रेम-कहानी की विलेन बनी जैसे यश राज बैनर की फिल्मों में लड़की का पिता विलेन बनता है। मोहब्बत पर बने गाने को ज्योति से जोड़कर गाया जाने लगा।

राहुल छोटी से छोटी उम्मीद की किरण खोज लाता कि भाई वो भी चाहती है। नितिन के पर उगे, वो श्वेता की नज़रों से बचकर ज्योति के साथ उड़ने के सपने देखता। उसने ज्योति से उसकी फोटो माँगी पर ज्योति ने मना कर दिया। कई दिन ऐसा चलता रहा तब राहुल के दबाव से वो मुक़ाम आया जो हर प्यार में आता ही है।

एक दिन तय हुआ कि मिशन को अंजाम दिया जाए। पेज फाड़ा गया, दिल बनाया गया, आई लव यू लिखा गया, शायरी लिखने की योजना स्थगित करके नीचे नाम में लिखा गया- नितिन। और साथ में 'यस' और 'नो' ? भी लिखा गया। पर ये सब राहुल की हैंडराइटिंग में लिखा गया और चुपके से ज्योति के बैग में रख दिया गया।

पढ़े जाने के पहले तक नितिन-राहुल के दिल में धुकधुकी शुरू। ज्योति ने अकेले में पढ़ा और बिना कुछ बोले, बिना फाड़े प्रेमपत्र खिड़की से बाहर फेंक दिया। पर ज्योति की चुप्पी ने नितिन की धुकधुकी को और बढ़ा दिया। श्वेता सोचती रही माज़रा क्या है।

राहुल नितिन को बधाई देने लगा। ज्योति मॉनिटर होने के नाते क्लास चुप कराने लगी। हिंदी वाले मास्टर साब पढ़ाने कम अपना रोना रोने के लिए आ गए। मौसम बदल गया अचानक। वॉयलिन बजने की आवाज़ सिर्फ़ नितिन को सुनाई देने लगी।

कईं दिनों तक नितिन इशारों में ज्योति से पूछता रहा 'यस' और 'नो' ? कभी ब्लैकबोर्ड पर लिख आता, कभी उसकी कॉपी में, कभी बेंच पर, कभी खेलते टाइम ग्राउंड में। ज्योति देख लेती पर कहती कुछ नहीं। इसे नितिन 'यस' ही समझता और यश राज बैनर की फिल्में ख़ूब देखता और राहुल के सामने एक्टिंग करता।

एक दिन खो-खो में राहुल की टीम जीत गयी और उसने ज्योति-श्वेता को चिढाना शुरू कर दिया। इसका बदला कैसे लिया जाए इस उलझन में श्वेता, ज्योति को बिना बताए खिड़की के बाहर गयी, उठा लाई प्रेमपत्र और क्लास टीचर के सामने रख दिया। अब राहुल-नितिन के दिल में एकदम अलग टाइप की धुकधुकी शुरू हो गयी।

क्लास टीचर कतई ब्योमकेश बक्शी बन गया। 

श्वेता से पूछा- "किसने किसके लिए लिखा है ये?"

श्वेता- "नितिन ने ज्योति के लिए।"

टीचर- "नितिन इधर आओ।"

नितिन धुकधुकी लिये सर के पास गया।राहुल धुकधुकी लिये बेंच में घुसने लगा। 

टीचर- "तुमने लिखा?"

नितिन- "नहीं सर,मैंने नहीं।" 

टीचर- "नाम तो तुम्हारा हैं?"

अब बोलने की बारी ज्योति की थी। 

 ज्योति- "सर ये हैंडराइटिंग राहुल की है।"

राहुल, नितिन से ज्यादा धुकधुकी लिये गाल पर हाथ रखे सर के पास पहुँचा। 

श्वेता- "सर, हैंडराइटिंग राहुल की है पर नितिन ने ज्योति के लिए लिखवाया है।"

नितिन- "नहीं सर, मैं कुछ जानता ही नहीं।"

ज्योति एकदम चुप...

क्लास टीचर ने पहले नितिन को एक चाँटा जड़ा। राहुल की धुकधुकी दो झन्नाटेदार चाँटा पड़ने के बाद कम हुई। ज्योति, नितिन को देखती रही, श्वेता मुस्कुराई और पूरी क्लास का मनोरंजन तो हो ही रहा था।

पूरे माज़रे में नितिन बेदाग निकला। सोचता रहा यश राज बैनर की फिल्मों में ऐसी सिचुएशन को हैंडल करना बताया ही नहीं था। राहुल को मिड टर्म देने से रोक दिया गया और 3 महीने के लिए स्कूल-निकाला दे दिया गया। श्वेता और ख़ुश हो सकती थी पर 'नितिन बच गया' ये बात उसकी ख़ुशी में कटौती कर देती थी।

ज्योति जो कभी इक़रार नहीं कर पाई और देर-सवेर नितिन को 'यस' कह ही देती पर अब सोचती है कि नितिन झन्नाटेदार चाँटे नहीं खा सकता तो आगे क्या ही कर सकता है उसके लिए। नितिन अब यश राज बैनर के बजाय अनुराग कश्यप की फिल्में देखता है। सवाल भी ग़लत करके नहीं आता।

श्वेता सोचती है कि 3 महीने कब बीतें कि राहुल को सॉरी बोला जाए। 


अगले साल बोर्ड के एग्जाम में नितिन और ज्योति दोनों जिले के मेरिट लिस्ट में आए। अख़बार में दोनों की फोटो छपी और इस तरह नितिन के पास ज्योति की फोटो आ गई। जिसे वो कभी-कभार देख लेता है अब। दुआ कर लेता है...जगजीत सिंह को ख़ूब सुनता है!

बाद के दिनों में नितिन की लाइफ में जितनी भी लड़कियाँ आयीं, सब में नितिन, ज्योति को खोजता रहा। इस मलाल के साथ जीता रहा कि उसदिन सच बोल के झन्नाटेदार चाँटा खा लेता, 3 महीने के लिए स्कूल निकाला झेल लेता तो शायद!  ज्योति साथ होती..शायद! 

अब इस बात को अरसा हो गया।

 ...और अब किसी एक का एक के पास फेसबुक पर फ्रेंड रिक्वेस्ट पेंडिंग है।


:)

31 अगस्त 2020

शीघ्रातिशीघ्र

कीड़े जानते होंगे कि
किसी के लिए दी जाने वाली बद्दुआ में वो शामिल होते हैं ?
बिल्ली जानती होगी कि
वो बाघ की मौसी कहलाती है ?
कौए जानते होंगे कि उनके बोलने को
बिहार में अशुभ माना जाता है और राजस्थान में शुभ ?
ख़रगोश जानता होगा कि
उसके नाम से स्कूलों में सबक याद कराए जाते हैं ?
भेड़िये को ख़बर है कि
सदियों से वो सीखा रहा है हमें झूठ नहीं बोलने के लिए ?
यमुना को पता होगा कि
इलाहाबाद के आगे भी उसका अस्तित्व है ?
या ब्रह्मपुत्र को पता है कि वो पुरुष है और गंगा स्त्री ?
मंटो को कौन यक़ीन दिलाएगा कि
वो ख़ुदा से भी बड़ा अफ़सानानिगार है ?
मुग़ालते में डूबे शाषक के भ्रम को कौन तोड़ेगा ?
बाढ़ के पानी को कौन संदेशा देगा कि
बच्चे उसे देख-सोच रोमांचित होते हैं
जबकि दोआब में बसे गाँव डर से काँपने लगते हैं ?
कोसी नदी को कौन उलाहना देगा कि
वो बिहार का शोक बनी हुई है ?
आसमान को कहकर कौन डराएगा कि
जब पृथ्वी न रहेगी तो वो कहाँ बरसेगा, कहाँ निहारेगा ख़ुद को ?
सूरज क्या जानता होगा कि
कितनी उम्मीद लगा के लोग सो जाते हैं रातों को ?
कुछ भाषाओं को भनक भी है कि
अब वे विलुप्ति के कगार पर हैं ?
सिगरेट को कौन ये कहकर ख़ुश करेगा कि
उसके ऊपर मनुष्य जाति के बहुत एहसान लदे हैं ?
वसंत ऋतु को कौन आगाह करेगा कि
पतझड़ का आना भी तय है ?
जवानी को कौन बताने की ज़हमत उठाएगा कि
अगले ही किसी मोड़ पर बुढ़ापा कातर निगाहों से इंतज़ार में है ?
दूर देश की एक सुंदर लड़की को ये कौन कहकर उसे
चहकने का मौका देगा कि
किसी लड़के की डायरी में अब दर्ज़ होने लगी है वो ?

ये सारे काम कवियों के हाथों में सौंपे जाने चाहिए....शीघ्रातिशीघ्र!



25 जुलाई 2020

बस इतना कि...

कॉलेज जाने की मेरे कईं वज़हों में
बेशक एक वज़ह वो भी थी
अलग नहीं थी वो
लाइब्रेरी में दिखी थी मुझे वो
केमिस्ट्री के लैब में मैं उसे
गणित की क्लास में हमदोनों ने
दोनों को देखा था बार-बार कईं बार
बाकी लड़कियों के जैसे ही थी वो भी
पर तस्वीर खिंचाती तो
बारी-बारी से एक आँख ज़रा सा बंद करना नहीं भूलती
कुछ पढ़ती तो पेंसिल उसके गुलाबी होंठों को छू जाते
हँसती तो उसके दाँत उसकी सुंदरता में इज़ाफ़ा कर देते
शायद किसी के नसीब न हुआ उसे देखना रोते हुए
उसकी जानकारी से दूर मैं उसे देर तक निहारता
अपनी बाइक पर
उसे दूर कहीं घूमाने ले जाने की सोचता पर
उससे ये कभी कहना नहीं चाहा
शहर के किस कोने से आती है, जानना नहीं चाहा
ना ही चाहा कभी कि
उसकी जुल्फ़ों के साए में सर रखकर कोई किताब पढूँ
ना ही चाहा कि वो मना करे मुझे सिगरेट पीने से
ना ही उसका पसंदीदा रंग जानना चाहा
ना ही चाहा घण्टों फ़ोन पर बतियाना
ना ही चाहा कि वो मेरी बातों का ऐतबार करे
ना ही कभी किताबों से तारीफ़ के शब्द
चुनकर उसके माथे पर टाँकना चाहा
ना ही हाथ थाम किसी प्राचीर से
पैर लटकाए डूबते सूरज को देखना चाहा
ना ही चाहा गुलाब के बदले में कभी भी गुलाब
ना ही कभी बारिश में साथ भीगना चाहा
ना ही कभी वो सब कुछ चाहा जो साँस लेने के जैसा
बेहद ज़रूरी होता है प्यार में

चाहा बस इतना कि
साहिर होना और 'उसके' इमरोज़ की पीठ पर लिखा जाना!

8 जुलाई 2020

बारिश का पानी

घर के पीछे
दूर तक फैले खेतों में
बारिश का पानी इक्क्ठा हो जाता है
जिसमें दिन भर
बरसाती मेढ़क टर्र टर्र करते रहते हैं
जिन्हें ध्यान देकर न सुना जाए
तो कोई मतलब नहीं।
रात को मेढ़क के साथ
झींगुर भी सुर मिलाते हैं।
मैं दिन में खिड़की से लग के
खेतों से धीमी रफ़्तार में
कम होते हुए पानी को देखता हूँ
और सोचता हूँ-
कविता लिखने के लिए अनुकूल दशा है ये!

तभी माँ आकर कहती है- जा, बाज़ार से सब्जी ला।
पिता आकर कहते हैं-केवल किताबों में ही जीवन नहीं है।
छोटा भाई गाना भेजकर पूछता है-किसकी आवाज़ है ये?
छोटी बहन को समझ ही नहीं आता सूर्यग्रहण की प्रक्रिया।
बड़ी बहन दबे आवाज़ में फ़ोन पर कहती है-दहेज कम क्यों दिया?
दादी अपने कमरे से बराबर आवाज़ लगाती रहती हैं-चश्मा कहाँ है?
शहर का करीबी दोस्त पूछता है-गाँव में रहना कैसा लगता है?
दूर देश की प्रेमिका(?) का मैसेज आता है-कब आ रहे हो दिल्ली?
पड़ोसी शिकायत लेकर आता है-उनके खेतों में हमारी गाय घुस गई है।

किताबों से निकलकर
गाय को अपनी जगह बांध
बाज़ार जाने की सोचता हूँ
सभी आवाज़ एक दूसरे पर हावी होते जाते हैं।
दहेज कम देना पड़े इसलिए
छोटी बहन को सूर्यग्रहण की प्रक्रिया का समझ आना ज़रूरी है।
दादी का चश्मा जगह पर ही है।
बस दोस्त और प्रेमिका को छोड़कर
मैं दिल्ली से गाँव चला आया हूँ।

खेतों में या तो
बारिश का पानी
इक्क्ठा ही नहीं होना चाहिए
या फ़िर कभी-कभी
खिड़की से खेतों की ओर नहीं देखना चाहिए।

2 जुलाई 2020

एक कवि है आलोक धन्वा

एक कवि है
जो चाहता था भारत में जन्म लेना
कोई मतलब पाना चाहता था
पर अब वह भारत भी नहीं रहा
जिसमें जन्म लिया उसने।

एक कवि है
जो कहता है-एक लड़की भागती है तो
यह हमेशा ज़रूरी नहीं है कि
कोई लड़का भी भागा होगा।
जो हिमायती है
मार्च के महीने में
लड़कियों का घर से भाग जाने का।

एक कवि है
जिसे बचाया है-सबसे सस्ती सिगरेट ने
दो कौड़ी की मोमबत्तियों की रोशनी ने
दो-चार उबले हुए आलू ने, जंगली बेर ने।

एक कवि है
जो कभी नहीं भूला
उन स्त्रियों को जिनसे प्रेम किया उसने।

एक कवि है
जो मीर के गली से हो आया है और
उधर जाने की हसरत रखता है जिधर
नदियाँ मिलती है समन्दर से।

एक कवि है
जिसके पास रेल है
जो जाती है उसके माँ के घर
सीटी बजाती हुई, धुआँ उड़ाती हुई।

एक कवि है
जिसके पास उम्मीद है सबके लिए कि-
एक बार और मिलने के बाद भी
एक बार और मिलने की इच्छा
पृथ्वी पर कभी ख़त्म नहीं होगी।



प्रिय कवि को जन्मदिन के लिए शुभकामनाएँ :)

30 जून 2020

समाज और प्रेमिकाएँ

उसने प्यार किया जैसे ख़ुद को
समाज की नज़र में साबित करने की खातिर
प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए फॉर्म में भरता गया
फर्स्ट नेम, मिडिल नेम, लास्ट नेम और डेट ऑफ बर्थ
और ऐसी ही बहुत सारी गैरजरूरी जानकारी
और असफल होता रहा।

जैसे प्यार में
असफल हुआ जाता है,
अपना पसंदीदा रंग, पक्षी
प्रिय कवि, गीत, फिल्म, अभिनेता, अभिनेत्री
मनपसन्द मौसम, सपनों के शहर के बारे में प्रेमिका को बताकर।

फिर भी वो ख़ुद को साबित करने की जिद्द पर अड़ा रहा
प्यार भी करता रहा कैलेंडर बदलने की तरह
करता रहा जानबूझकर जरूरी गलतियाँ
फिर प्रेमिकाओं के बद्दुआएँ ढोते हुए
परीक्षाओं में असफल होकर
समाज के लिए घृणित
होता गया।

जैसे किताबें
किसी को देकर भूला दी जाती हैं
वैसे ही समाज को ताक पर रखकर
प्रेम करते हुए उसने प्रेमिकाओं को भूला दिया।
समाज लायक(?) बनते-बनते जब थक गया तो
डेट ऑफ बर्थ इस लायक नहीं रही कि भर सके अब फॉर्म
गुमान की जाने वाली जवानी भी नहीं रही कि लड़कियाँ हो जाए फिदा।

ताने, जहालत, दुनियादारी, पेट और पेट के नीचे की भूख
जब समाज का चेहरा बनकर हावी होने लगा तब
उसने खुद से चुपचाप प्यार किया और शोर करते हुए उदास हुआ
'पागल है' का तमगा हासिल किया और
किसी लम्बी दूरी की ट्रेन में लावारिस शव बनके
बनारस स्टेशन के आउटर पर फेंका गया।
अगले दिन के अख़बार के किसी कोने में
शव पहचानने की सूचना छपी
जिसे समाज और प्रेमिकाओं ने चाय पीते हुए पढ़ा।

25 जून 2020

ज़रूरत बनाम ज़िम्मेदारी

पिता की ज़रूरत में
टॉर्च, रेडियो, एक लाठी
एक साईकल, कोठारी गंजी
सूती कमीज़, पैंट, एक सफेद गमछा
सुबह की चाय, दो वक़्त का खाना
सात वक़्त का तम्बाकू
और कभी-कभी
एक खिल्ली मीठा पान ही शामिल रहा।

ज़रूरत से कहीं अधिक
पिता के लिए सबकुछ ज़िम्मेदारी ही रहा-
उनकी माँ से लेकर उनके बच्चों की माँ तक
घर की टूटी दीवार से लेकर बच्चों की नौकरी तक
दुआर पर गाय से लेकर धान उगाने वाले खेत तक
जब-जब बीमार हुए पिता
उन्हें डागदर बाबू की दवाई ने कम
ज़िम्मेदारी ने अधिक बार ठीक किया।

ज़रूरत कम होने और
ज़िम्मेदारी बढ़ने के साथ ही
पिता जैसे-जैसे तब्दील होते गए सूरज में,
माँ पृथ्वी बन काटने लगी उनका चक्कर।
पिता तुनकमिजाज होते गए
देवताओं के पास माँ की अर्ज़ी में बढ़ोतरी होती गई।

बुरी नज़र से बचाने और सलामती की ख़ातिर
आरती गाती हुई माँ की आवाज़ का
घण्टी की आवाज़ पर हावी होने से लेकर
घण्टी की आवाज़ का माँ की आवाज़ पर हावी होने तक
पिता हमारी ज़रूरत से खारिज़ होकर ज़िम्मेदारी बन गए।
माँ पूजाघर में ही विलुप्त हो गई एक दिन
और
पिता एक दिन अचानक घर आना भूल गए।

ज़रूरतें तुली हुई हैं कि
माँ जैसी चीज़ें विलुप्त हो जाए
और ज़िम्मेदारियाँ अमादा हैं कि
पिता जैसी चीज़ें घर का रास्ता भूल जाए।

21 जून 2020

समझौता

"समय सब ठीक कर देता है"
"समझौता करना सीखो"

समझौता- जीवन से, जीवन में, जीवन के लिए
पर समझौता का मतलब
उस जीवन को जीए बिना
हम में से बहुत लोग नहीं जान पाएँगे।

जिन लड़कियों ने बेपनाह प्यार
किसी और से 'किया' और अब
जिन्हें शादी के बाद बेपनाह प्यार
किसी और से 'करना पड़ रहा' है।
उन घर की बड़ी होती हुईं बेटियाँ
जानती हैं कि-

बर्तन ज़ोर से क्यों पटका जाता
किसी दिन सब्जी तीखी क्यों बनी
बारिश में भीगने की मनाही क्यों
कॉलेज से सीधा घर क्यों आना
किसी के सामने ज्यादा क्यों नहीं हँसना
हर वक़्त ओढ़नी को क्यों है ढ़ोना
छत पर केवल कपड़े लेने ही क्यों जाना
हवा के झोंके को क्यों नहीं महसूस करना
फिल्में कभी-कभार ही क्यों देखना
अपनी पसंद उजागर क्यों नहीं करना।

कुछ लड़कियों की किस्मत में
साफ-साफ लिखा होता है यूरोप घूमना
पर उन्हें कोल्हू के बैल के माफ़िक
पता होता है कि कहाँ-कहाँ घूमना है।

तेज़ धार का चाकू
रुका हुका हुआ पंखा
तालाब
सल्फास की गोली
तिनमंजिला छत
लापरवाही से चलती हुई बस,
समझौता करना नहीं जानती और ना ही कभी जान पाएगी।

17 जून 2020

आदतन...

दुनिया जानती है-

मंटो पागल होने से मरा
मीरा कुमारी शराब की लत से
बटालवी भी शराब की लत से
प्रेमचंद पेट के रोग से
मुक्तिबोध लकवे से
संजीव कुमार हृदयाघात से
धूमिल ब्रेन ट्यूमर से
सफ़दर हाशमी नेता की रॉड से
गुरु दत्त नींद की गोली से
वैन गा ख़ुद की गोली से
चे ग्वेरा सत्ता की गोली से
कीट्स टीबी से
वर्जीनिया वुल्फ नदी में डूबने से

और
सुशांत फंदे से मरा।

गौरव सोलंकी【वही 'ग्यारहवीं A के लड़के' वाले】कहते हैं-

"कुछ लोग प्रेम न मिलने पर भी मर जाते थे, चाहे प्रेम सिर्फ़ एक झूठी अवधारणा ही हो। लेकिन डॉक्टर समझदार थे कभी किसी पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में नहीं लिखा गया कि अमुक व्यक्ति प्यार की कमी से मर गया। यदि दुनिया भर की आज तक की सब पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट देखी जाएँ तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि दुनिया में हमेशा प्यार बहुतायत में रहा। लोग सिर्फ़ कैंसर, पीलिया, हृदयाघात और प्लेग से मरे।"

'जानिए निराशा को दूर करने के उपाय'
'डिप्रेशन के 10 लक्षण'
'जीवन से ऊब चुके हैं तो ये वीडियो आपके लिए है'
'आप अकेले नहीं है, मैं हूँ, अभी कॉल कीजिए 109777 पर'

किसी पत्रिका के अगले अंक में ओशो, सद्गुरु, श्री श्री आपको आत्महत्या करने से बचाते हुए नज़र आयेंगे। फिर भी अख़बार का तीसरा पेज आरक्षित रहेगा आत्महत्या करने वालों के मनहूस ख़बरों से। जैसा हर बार होता है, होता रहेगा।

तोहमत, अटकलें, लफ्फाजियाँ, बयानबाजी, सपाट रवैया...आदतन।

15 जून 2020

मुमकिन है...

जिनका भी भरोसा
माँ-बाप पर से उठ गया हो।
वह कभी भी ईश्वर पर भरोसा नहीं कर सकता।

पहाड़ी झरने में मिलकर
बरसात का पानी ले जाता है जीवन।

बूढ़ा होना अचानक आएगा
जैसे आ जाती है अचानक छींक।

एक पागल कवि जानता है कि
लड़की बुखार में नहीं प्रेम में है।

शाम की तरफ़ जाते जीवन में
कठिन लगता सबकुछ
सुनसान रास्तों पर चलते हुए
मुस्कान की पैरवी करते दरख़्त
सच को झुठलाते हुए पश्चिम में डूबता सूरज।

उन गुनाहों की सज़ा क्या होगी ?
जो प्रेम में रहते हुए
पागल कवि और बुखार वाली लड़की
पूरी पृथ्वी को एक कर देते हैं।

पर जीवन में यादों को उगाना भी
कम मुश्किल काम नहीं
और
किसी को याद करके रो सकने की तो
बात ही दूसरी है।

मुमकिन है
बुखार वाली लड़की का हाथ
जब उसका पति थामे
तो उँगलियाँ पागल कवि की हो, मुमकिन है।


:)

9 जून 2020

चुप्पी तोड़ो और लिखो ख़त अब

लड़की चुप है
जैसे चुप हैं तारे वैसे ही
जैसे मोची के बेटे के सपने चुप हैं
और जैसे चुप है सारी मछलियाँ।

वो लड़की शुरू से ही नहीं थी लड़की
थोड़ी देर से बनी थी वो लड़की
जैसे उसका प्रेमी थोड़ा पहले ही बन गया था लड़का
जैसे प्रेम को महसूसते हुए कोई इंसान बन जाता है पिता
ठीक वैसे ही चुप है वो लड़की।

लड़की चुप है और उसकी चुप्पी
एक दिन रचेगी सभ्यता
एक दिन चाँद देर से पहुँचेगा अमावस की रात तक
एक दिन सूरज जल्दी डूबेगा
एक दिन दक्षिणी ध्रुव को एहसास होगा उत्तरी ध्रुव की ठंड
एक दिन पिता को एहसास होगा कि इस 'समाज' का क्या करूँ अब
लड़की चुप है और उसकी चुप्पी में 'एक दिन' है छिपा हुआ।

उस लड़की का
'लड़की' होने का रहस्य
उसके होने का रहस्य-
दूर देश के एक लड़के,
एक समंदर, एक चाँद को पता है।
लड़की ने एक बार कहा था-
जब देर रात देह में उठता है दर्द
तो उसकी आँखों और होठ का फासला कम हो जाता है।

वो लड़की चाहती क्या है ?
किस्से, कविताएँ, यक़ीनी बातें,
प्रेमी की उलझनें या प्रेमी की उड़ान!

धूप घड़ियाँ-सी होती हैं कुछ लड़कियाँ उनमें सुइयां नहीं होती,
और उनके गहरे रहस्य तक पहुँचने के लिए
कुछ लड़के रेतघड़ी के सहारे काट लेते हैं ज़िन्दगी।


मन :)

7 जून 2020

संभावना कविता हो जाने की...


प्रेम
भरोसा
जिम्मेदारी
मजबूत हाथ
सहमा एक खरगोश
अँधेरी रात में जाती रेल
पत्ते पर अटकी बारिश की बूँद
अधखुली एक किताब पर रेंगती चींटी
सुकून से हाँफती कुत्ते से बच गयी बिल्ली
प्याले में ठहर गयी फीकी चाय की आख़िरी घूँट
बाँट देने के बाद भी रूठी साईकल पर बचा अख़बार
आख़िरी विदा में एक बार और हाथ थामने की ख़्वाहिश
एक कसक पिता से न कह सकने की 'बहुत प्यार है आपसे भी'
बिजली के तारों पर बैठी भीगे पंखों वाली कबूतरों की कतारें
त्यागे गए घर में मकड़-जाल से लिपटा एक बुझा लालटेन
नींद की आगोश में अधूरी छोड़ दी गई एक प्रेम कहानी
भटक गए राही के लिए नुक्कड़ पर पान की दुकान
नदी किनारे अरसे से लावारिस पड़ी एक नाव
बिन पते का लिखा गया एक गुमनामी ख़त
बिस्तर पर कईं रातों की बेचैन सिलवट
शांत सहरा में दो जोड़े पैरों के निशां
खिड़की पर उम्मीद की किरण
घर की चौखट पर दीया
दरवाजे पर सुकून
सुकूँ में दो दिल
दो दिल
दिल
दो

:)