13 सितंबर 2020

गुरु गुण लिखा न जाय...

कबीर कहते हैं- सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय। सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय।। अर्थात पूरी पृथ्वी को कागज, सभी जंगल को कलम, सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते।
      

  एक माँ, जो स्कूल से बेटे की शिकायत भरे ख़त को बदल के पढ़ देती हैं कि आपका बेटा बहुत ही क़ाबिल है, इसे घर पर ही रखिए। वहीं बेटा जब ख़त की असलियत तक पहुँचता है तो दंग रह जाता ये पढ़कर कि स्कूल वाले उसे मंदबुद्धि मानते और स्कूल के लायक नहीं समझते... आगे वहीं बेटा थॉमस एल्वा एडीसन बनता है जिनके नाम 1093 खोजों के पेटेंट दर्ज़ है।
      

  एक पिता जो अपने बेटे के लिए स्कूल को ख़त लिख के कहता है- "मेरे बेटे को दिखा सको तो दिखाना, किताबों में छिपा खज़ाना, उसे ये बताना कि बुरे आदमी के पास भी अच्छा हृदय होता है। आप उसे बताना मत भूलियेगा कि उदासी को किस तरह प्रसन्नता में बदला जा सकता है और उसे ये भी बताना कि कभी रोने का मन करे तो रोने में शर्म बिल्कुल ना करे।" उस पिता का नाम अब्राहम लिंकन है।
      

  'पिता के पत्र पुत्री के नाम' 1928 से अगले 3 साल तक जवाहर लाल नेहरू अपनी 11-12 साल की बेटी इंदिरा को अलग-अलग जेलों से ख़त लिखते रहें और नन्हीं सी जान को दुनिया के बारे में बड़ी ही बारीक़ी से हर पहलू को छूते हुए, दुनियादारी से रूबरू कराते रहें।
       

 मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'बड़े भाई साहब' से वो सीखा जा सकता है जो कोई महाग्रंथ नहीं सीखा सकता कभी!
      

  किशोर दा, उनसे सीखा जा सकता है- हर हाल में जीवन का आनंद लेना। कोई जब उनके लिए ये कहता- "एकदम बच्चों जैसे थे किशोर। छोटी छोटी बातों से बहुत ख़ुश हो जाते थे। कभी कभी बारिश को देख इतना ख़ुश हो जाते मानो पहली बार देख रहे हों।" और ये भी कि "महान लोग समय के साथ-साथ और महान होते जाते हैं, क्योंकि आप यह अनुभव करते हैं कि वो कैसे काम करते हैं। यही चीज़ किशोर कुमार के साथ भी हुई।"
     

  शिवमंगल सिंह सुमन जी की कविता 'वरदान माँगूँगा नहीं' बहुतों में से एक मेरे लिए भी जीवन के समंदर में भटक चुके जहाज़ के लिए प्रकाश स्तंभ साबित हुई- "क्‍या हार में क्‍या जीत में किंचित नहीं भयभीत मैं, संघर्ष पथ पर जो मिले, यह भी सही वह भी सही.. वरदान माँगूँगा नहीं।"


परिस्थितियाँ हमें उन अनुभवों से रूबरू कराती हैं जिन तक पहुँचने में हमें कईं साल लग जाए.. बिहार में जन्म लेने के बाद बचपन के कुछ ही हिस्से जी पाया था कि नाना जी का फ़रमान ज़ारी हो गया- जाओ राजस्थान जाओ..यहाँ रहे तो बिगड़(?) जाओगे! और मैं चला गया राजस्थान(नसीराबाद, अजमेर) 12 साल की उम्र में, जहाँ मुझे संजय अंकल जी जैसे शख़्स मिले जो बिहार के ही बेगूसराय जिले से हैं. उनकी बातें कभी सिगरेट पीते हुए मेरे मन में दर्ज़ की जातीं तो कभी तंबाकू रगड़ते हुए कहते तो कभी टेस्ट मैच देखते हुए कभी चेस खेलते हुए. एक बात जो मेरे मन में टँगी हैं उनकी- "उम्मीद नहीं रखनी चाहिए किसी से भी, दुःख की वज़ह है ये." आज मैं जिस किसी भी स्तर पर शतरंज खेल लेता हूँ इसके पीछे संजय अंकल जी ही हैं. उस वक़्त वो कभी कभी ज़बरदस्ती शतरंज खेलने के लिए कहते क्योंकि उन्हें कोई और खेलने लिए मिलता नहीं था जैसे आज मुझे नहीं मिलता तब समझ आता है कि इस वक़्त मुझे भी कोई मन्टू मिले तो मैं भी उसके साथ ज़बरदस्ती खेलूँगा...  हाहाहा...

             श्रीराम जी गुरु जी, शुरुआत में आदर्श विद्या मंदिर के स्कूल में दाख़िले की वज़ह से आप जानते भी होंगे कि इन स्कूलों में सर को गुरु जी और मैडम को दीदी कहना होता है. यहाँ तक कि अपने से बड़े सहपाठी को भैया और दीदी कहना अनिवार्य होता है। कुछ भी करने से पहले संस्कृत का एक एक मंत्र तय है उस काम के लिए। श्रीराम जी गुरु जी, उनको लेकर ये लिखते हुए भावुक हो रहा हूँ। इतना जानिए कि "किसी पर हर तरीक़े से जब भरोसा किया जाता हैं ना तब वो शख़्स क्या कुछ करने के क़ाबिल नहीं बन जाता।" बस ऐसा ही कुछ भरोसा श्रीराम जी गुरु जी का मुझपर था!

भय का सकारात्मक पहलू क्या और किस हद तक हो सकता है ये नाना जी से सीखा और अभी भी सीख रहा हूँ। 

नानी, जो मेरी माँ से भी पहले माँ है, उनके होने से ही मैं हूँ... और क्या कहूँ ?

कुछ दोस्त, नहीं नहीं कुछ तो नहीं कहा जा सकता, बहुत सारे हैं.. जिनमें लड़के लड़कियों की बराबर अनुपात तो नहीं पर आस पास के अनुपात में ज़रूर है और दोस्तों की अहमियत के बारे में क्या लिखना ? दोस्तों का जीवन में होना ही नेमत है, इनायतें हैं :)

छोटा भाई, रवि, जिसके लिए मैं कहता भी हूँ और सोचता भी हूँ कि इसे बड़ा होना चाहिए था। पर कोई नहीं! रवि, सिनेमा से जुड़े विषयों में ख़ुद का भविष्य देखता है, देख रहा है। तो स्वतः ही एक ऐसी ज़िम्मेदारी(?) मेरे कंधे पर आ जाती है कि रवि सिनेमा से जुड़ा हुआ कोई भी सवाल कभी भी पूछ ले तो मैं बताने के क़ाबिल रहूँ, ज़्यादातर बारी कामयाब रहता हूँ, ऐसा मेरा मानना है.. हाहाहा

दीदी, मधु दीदी.. जिनके रेडियो पर विविध भारती सुनने या कोई कोई फ़िल्म को रेडियो पर सुनने की आदत ने, मुझ अबोध बालक(?) के दिलोदिमाग पर ऐसी लकीरें खींची कि ताउम्र गीत-संगीत-सिनेमा से मैं ख़ुद को अलग रखने की सोच भी नहीं सकता.. और सोचना है भी नहीं।

छोटी बहनें- सब्बू, सोनी, स्नेहा। इनका होना जैसे बचपन के उन पलों को फ़िर से जीने जैसा है जिन पलों को उस वक़्त में शायद परिस्थितियों ने चाहा नहीं था..या जो कुछ भी।

माँ-पापा ❤

सोशल मीडिया के हमराही- टेक्नोलॉजी दोधारी तलवार है, आप इसका इस्तेमाल कर प्लूटो तक जा सकते हैं और इसी का इस्तेमाल कर गर्त(?) में आसानी से जा सकते हैं, आपके हाथ में हैं। चुनाव का सारा मामला हमारे हाथ में ही होता है, कभी कभार वो चुनाव किसी दूसरे के मन के रास्ते से हमतक आने लगता है पर रहता चुनाव अपना ही। जो कोई भी शख़्स सोशल मीडिया के दरवाज़े से मेरी ज़िंदगी(?) में दाख़िल हुए या जिनको मैंने कहा आगे होके कि आप आ जाइए, उन सबका तहेदिल से शुक्रिया... कईयों को उनके नाम की किताबें दे चुका हूँ, कईं ऐसे हैं जो मिलेंगे तो किताबें दे दूँगा 💃

साहित्य- इसके दायरे में मैं सबकुछ को मानता हूँ, सबकुछ। सआदत हसन मंटो का लिखा भी और छोटे छोटे बच्चों का खिलखिला के हँसना भी। माँ का ये कहना भी कि "दही-भूजा खा ले।" साहित्य न होता तो जीवन क्या होता... डूबोया मुझको होने ने, कुछ न होता तो ख़ुदा होता _/\_

...और आख़िर में रोजर विलियम्स की कही बात- "दुनिया का सबसे बड़ा अपराध है अपनी क्षमता का विकास न कर पाना।"

        ...और भी बहुत जने, जिनसे सीखने को बहुत कुछ मिला और बहुत कुछ मिलना अभी बाक़ी है, लेकिन उन्हें गुरु(?) का दर्ज़ा देना अभी जल्दबाज़ी होगी। 

और इस बात की गाँठ- "..तेरे अंदर एक समंदर, क्यों ढूँढे तब्के-तब्के"


       कबीर के ही दोहे से ख़त्म करते हैं इसे- "मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर। अब देवे को क्या रहा, यो कथि कहहिं कबीर।। अर्थात यदि अपना मन तूने (गुरु) किसी को दे दिया तो जानो सब दे दिया, क्योंकि मन के साथ ही शरीर है, वह अपने आप समर्पित हो गया। अब देने को रहा ही क्या है।


:)



गुनगुना लीजिए :)


आते-जाते, ख़ूबसूरत, आवारा सड़कों पे

कभी-कभी इत्तेफ़ाक़ से...


आते-जाते, खूबसूरत, आवारा सड़कों पे

कभी-कभी इत्तफ़ाक़ से कितने अनजान लोग मिल जाते हैं


उनमें से कुछ लोग भूल जाते हैं, कुछ याद रह जाते हैं

उनमें से कुछ लोग भूल जाते हैं, कुछ याद रह जाते हैं...


मन :)

5 सितंबर 2020

फ्रेंड रिक्वेस्ट

पहली नज़र का प्यार कहा जा सकता है। यश राज बैनर की फिल्मों की देन थी कि खेलने कूदने खाने की उम्र में प्यार-मोहब्बत की बातें। वहीं नदी, पहाड़, बारिश, झरने, छत, मैदान, पेड़ के नीचे हीरो-हीरोइन गाना बजाना और आँखें चार करना। नितिन का भी कुछ यूँ ही था ज्योति के साथ।

दोनों क्लास के टॉपर थे पर नितिन जानबूझ कर सवाल ग़लत कर आता और ज्योति को टॉप होने देता। राहुल 4th, नितिन के लिए 'रांझणा' के मुरारी जैसा। 4th इसलिए कि क्लास में चार राहुल थे। कहने के लिए राहुल और नितिन पक्के जिगरी। एक को काटो तो दूसरे से खून निकलता टाइप।

राहुल जानता था कि नितिन ज्योति के लिए मरा जा रहा है। ज्योति भी जानती थी। क्लास में सभी जानते थे। श्वेता जो ज्योति की जिगरी थी, इस प्रेम-कहानी की विलेन बनी जैसे यश राज बैनर की फिल्मों में लड़की का पिता विलेन बनता है। मोहब्बत पर बने गाने को ज्योति से जोड़कर गाया जाने लगा।

राहुल छोटी से छोटी उम्मीद की किरण खोज लाता कि भाई वो भी चाहती है। नितिन के पर उगे, वो श्वेता की नज़रों से बचकर ज्योति के साथ उड़ने के सपने देखता। उसने ज्योति से उसकी फोटो माँगी पर ज्योति ने मना कर दिया। कई दिन ऐसा चलता रहा तब राहुल के दबाव से वो मुक़ाम आया जो हर प्यार में आता ही है।

एक दिन तय हुआ कि मिशन को अंजाम दिया जाए। पेज फाड़ा गया, दिल बनाया गया, आई लव यू लिखा गया, शायरी लिखने की योजना स्थगित करके नीचे नाम में लिखा गया- नितिन। और साथ में 'यस' और 'नो' ? भी लिखा गया। पर ये सब राहुल की हैंडराइटिंग में लिखा गया और चुपके से ज्योति के बैग में रख दिया गया।

पढ़े जाने के पहले तक नितिन-राहुल के दिल में धुकधुकी शुरू। ज्योति ने अकेले में पढ़ा और बिना कुछ बोले, बिना फाड़े प्रेमपत्र खिड़की से बाहर फेंक दिया। पर ज्योति की चुप्पी ने नितिन की धुकधुकी को और बढ़ा दिया। श्वेता सोचती रही माज़रा क्या है।

राहुल नितिन को बधाई देने लगा। ज्योति मॉनिटर होने के नाते क्लास चुप कराने लगी। हिंदी वाले मास्टर साब पढ़ाने कम अपना रोना रोने के लिए आ गए। मौसम बदल गया अचानक। वॉयलिन बजने की आवाज़ सिर्फ़ नितिन को सुनाई देने लगी।

कईं दिनों तक नितिन इशारों में ज्योति से पूछता रहा 'यस' और 'नो' ? कभी ब्लैकबोर्ड पर लिख आता, कभी उसकी कॉपी में, कभी बेंच पर, कभी खेलते टाइम ग्राउंड में। ज्योति देख लेती पर कहती कुछ नहीं। इसे नितिन 'यस' ही समझता और यश राज बैनर की फिल्में ख़ूब देखता और राहुल के सामने एक्टिंग करता।

एक दिन खो-खो में राहुल की टीम जीत गयी और उसने ज्योति-श्वेता को चिढाना शुरू कर दिया। इसका बदला कैसे लिया जाए इस उलझन में श्वेता, ज्योति को बिना बताए खिड़की के बाहर गयी, उठा लाई प्रेमपत्र और क्लास टीचर के सामने रख दिया। अब राहुल-नितिन के दिल में एकदम अलग टाइप की धुकधुकी शुरू हो गयी।

क्लास टीचर कतई ब्योमकेश बक्शी बन गया। 

श्वेता से पूछा- "किसने किसके लिए लिखा है ये?"

श्वेता- "नितिन ने ज्योति के लिए।"

टीचर- "नितिन इधर आओ।"

नितिन धुकधुकी लिये सर के पास गया।राहुल धुकधुकी लिये बेंच में घुसने लगा। 

टीचर- "तुमने लिखा?"

नितिन- "नहीं सर,मैंने नहीं।" 

टीचर- "नाम तो तुम्हारा हैं?"

अब बोलने की बारी ज्योति की थी। 

 ज्योति- "सर ये हैंडराइटिंग राहुल की है।"

राहुल, नितिन से ज्यादा धुकधुकी लिये गाल पर हाथ रखे सर के पास पहुँचा। 

श्वेता- "सर, हैंडराइटिंग राहुल की है पर नितिन ने ज्योति के लिए लिखवाया है।"

नितिन- "नहीं सर, मैं कुछ जानता ही नहीं।"

ज्योति एकदम चुप...

क्लास टीचर ने पहले नितिन को एक चाँटा जड़ा। राहुल की धुकधुकी दो झन्नाटेदार चाँटा पड़ने के बाद कम हुई। ज्योति, नितिन को देखती रही, श्वेता मुस्कुराई और पूरी क्लास का मनोरंजन तो हो ही रहा था।

पूरे माज़रे में नितिन बेदाग निकला। सोचता रहा यश राज बैनर की फिल्मों में ऐसी सिचुएशन को हैंडल करना बताया ही नहीं था। राहुल को मिड टर्म देने से रोक दिया गया और 3 महीने के लिए स्कूल-निकाला दे दिया गया। श्वेता और ख़ुश हो सकती थी पर 'नितिन बच गया' ये बात उसकी ख़ुशी में कटौती कर देती थी।

ज्योति जो कभी इक़रार नहीं कर पाई और देर-सवेर नितिन को 'यस' कह ही देती पर अब सोचती है कि नितिन झन्नाटेदार चाँटे नहीं खा सकता तो आगे क्या ही कर सकता है उसके लिए। नितिन अब यश राज बैनर के बजाय अनुराग कश्यप की फिल्में देखता है। सवाल भी ग़लत करके नहीं आता।

श्वेता सोचती है कि 3 महीने कब बीतें कि राहुल को सॉरी बोला जाए। 


अगले साल बोर्ड के एग्जाम में नितिन और ज्योति दोनों जिले के मेरिट लिस्ट में आए। अख़बार में दोनों की फोटो छपी और इस तरह नितिन के पास ज्योति की फोटो आ गई। जिसे वो कभी-कभार देख लेता है अब। दुआ कर लेता है...जगजीत सिंह को ख़ूब सुनता है!

बाद के दिनों में नितिन की लाइफ में जितनी भी लड़कियाँ आयीं, सब में नितिन, ज्योति को खोजता रहा। इस मलाल के साथ जीता रहा कि उसदिन सच बोल के झन्नाटेदार चाँटा खा लेता, 3 महीने के लिए स्कूल निकाला झेल लेता तो शायद!  ज्योति साथ होती..शायद! 

अब इस बात को अरसा हो गया।

 ...और अब किसी एक का एक के पास फेसबुक पर फ्रेंड रिक्वेस्ट पेंडिंग है।


:)