4 नवंबर 2020

गले की ख़राश

उसके लिए बनारस एक समय पर धड़कते दिल के समान हो गया था तो वहीं बनारस उसके जीवन के लिए बची उम्र के लिए नरक बन गया।

मान्या नाम था लड़की का। इलाहाबाद जब किसी कंपीटिशन का एग्जाम देने गई थी एग्जाम तो ठीक ठाक हो गया। सेंटर से जब बाहर निकली तो गले में कुछ अजीब सा हुआ और लगी खांसने। पानी की सख़्त ज़रूरत महसूस हुई उसे और अगले ही पल विक्रम नाम के लड़के ने पानी की बोतल उसकी तरफ़ बढ़ा के अपने बैग से टिफिन निकालने लगा। मान्या को जब गले में पानी से सुकून हासिल हुई तब उसने तिरछी नज़र से ही विक्रम को देखा जो टिफिन निकाल के सड़क पार बने पार्क की तरफ़ देख रहा था। जहाँ वो चैन से बैठ कर बड़ी दीदी के हाथ के बने पराँठे और माँ के हाथों से बने आचार का लुत्फ़ लेता। मान्या ने धन्यवाद कहते हुए बोतल वापस करी और सड़क के इसी किनारे आगे बढ़ गई, विक्रम सड़क पार पार्क में ख़ुद को ले गया।

थोड़ी ही देर बाद मान्या चार समोसे खरीदकर विक्रम के सामने बेंच पर बैठी मुस्कुरा रही थी और रह रहकर गर्दन पर हाथ फेर ख़राश से बचना चाह रही थी। दो समोसे विक्रम के हिस्से गए और एक पराँठे मान्या के हिस्से तब जाकर विक्रम ने बात करने, एक दूजे को जानने की पहल करी

"नाम क्या बताया था तुमने पानी पीते वक़्त ?"
"चंपा"
"अच्छा हाँ, चंपा"
"कुछ भी ? कब बताया नाम मैंने अपना?"
"अच्छा नहीं बताया था क्या, लो अब बता दो"
"मान्या"
"अच्छा नाम है ना ?
"वो तो है"
"मेरा जानना चाहोगी?"
"नहीं जानना था पर आचार बढ़िया है, तो बता दो नाम भी"
"विक्रम"
"ठीक ही नाम है, कोई ख़ास नहीं"

दोनों ने खाना ख़त्म किया, विक्रम को चाय नहीं कॉफी बेहद पसंद और मान्या  को ठीक इसका उल्टा। दोनों ने एक-एक कप कॉफी और चाय ली और वापस पार्क में गए इस बार दोनों ने घास पर पैर फैलाकर बैठना चुना। संयोग देखिए, चाय विक्रम के हाथों में गई थी और कॉफी मान्या के हाथ में। विक्रम को ध्यान नहीं ये पर मान्या ने पहले ही ग़ौर कर लिया था। तो जल्दी से मान्या ने कॉफी जूठी करके विक्रम से कहती है- "अरे मैं तो कॉफी पी ली। पर कोई ना, ऐसा भी होना चाहिए, वैसे कॉफी अच्छी बनी है" गले की ख़राश को राहत मिली और मान्या को ये संकेत कि चाय की तुलना में कॉफी से ख़राशें जल्दी दूर होती हैं। या क्या पता विक्रम जैसा साथी साथ बैठ के चाय-कॉफी पीए तब ख़राशें जल्दी दूर हो जाती हों। मान्या को नहीं पता।

विक्रम ने भी चाय ख़त्म करी कैसे भी और दोनों ने एक साथ टाइम देखा तो नेक्स्ट पेपर के लिए ज़्यादा टाइम बचा नहीं था। दोनों ने वापस सेंटर में जाने को चुना उसके पहले विक्रम ने मान्या के लिए एक बोतल पानी खरीद दी और कहा कि एग्जाम के बाद इसके पैसे दे देना। दोनों हँसते हँसते सेंटर में घुसे और बाहर केवल विक्रम हँसता हुआ निकला। गले की दिक्कत और कान दर्द ने मान्या के दूसरे पेपर को ख़राब करवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

दोनों बाहर निकले। फेसबुक पर दोस्त बने और मान्या बनारस अपने चाचा के घर के लिए निकली और विक्रम स्कूल के ज़िगरी दोस्त की शादी में जाने के लिए एयरपोर्ट निकला जहाँ से बंगलुरू के लिए उसकी फ्लाइट थी।

मान्या शुरू से ही अपने घर(चंदौली) न रहकर बनारस में ही चाचा के साथ रही। घर में बस चाचा, उनकी दो छोटी बेटियाँ, एक मिठ्ठू तोता और मान्या थी। चाची छह महीन पहले ही गंगा में नौकायन के लुत्फ़ लेने के क्रम में संतुलन बिगड़ा और सुबह सवेरे का वक़्त होने की वज़ह से सुनसान घाट पर कोई नहीं था जो बीच गंगा में कूदकर चाची को बचा पाता। तीनों बहनें चिल्लाती रहीं और चाची का जाना तय था या तय किया गया था, वो चली गईं ठीक वैसे ही जैसे शाम को सूरज ढल जाता है और बहुतों को ख़बर नहीं लगती।

मान्या शुरू से ही पढ़ने में औसत ही थी। बोलती कम सोचती ज़्यादा। कोर्स की किताबों से इतर कुछ भी पढ़ने का शौक नहीं ना ही टीवी देखने का न गाने सुनना। गमले में फूल लगाती थी और छत से नीचे गली में खेलते बच्चों को बिना हँसे देखती रहती। 5-7 दिन पर गंगा घाट चली जाती अकेले ही। लौटते वक्त लंका पर चाय पीती और घर लौट आती जहाँ बेसब्री से दोनों बहनें और तोता दरवाज़े की तरफ़ देखता रहता था।

दोनों बेटियों से ज़्यादा चाचा मान्या की ख़बर रखते, दुलारते और कहते कि इन दोनों बहनों के पीछे अपना जीवन ख़राब न करना।  मान्या की आदत थी सुबह जल्दी उठने की। सुबह जल्दी उठ पहले ख़ुद के लिए स्पेशल चाय बनाती फ़िर बाद में चाचा जी और बहनों के लिए।

मान्या जब रसायनशास्त्र से ग्रेजुएशन पूरी कर ली तब पीजी में एडमिशन लेकर कंपीटिशन की तैयारी में लग गई। चाचा जी के दोस्त अक्सर जो मान्या के हाथ की बनी चाय पीने आते थे, उन्होंने सुझाव दिया था कि टीचर के जॉब के लिए तुम नहीं बनी हो बेटी, तुम बैंक में जाओ, अफ़सर बनो। चाचा की रजामंदी मिल गयी तो मान्या तैयारी करने लगी। मान्या के गले की ख़राश वाली दिक्कत चाची के रहते ही शुरू हुई थी। लाख अब चाचा जी मान्या का ख़्याल रखते थे पर मान्या ने गले की ख़राश वाली बात चाचा जी को कभी नहीं बताई और दोनों बहनों को भी हिदायत दी थी कि चाचा जी तक ये बात न पहुँचे।

विक्रम और मान्या की फेसबुक पर बात शुरू हुई और जल्दी ही फ़ोन पर भी बातें होने लगी। दोनों को दोनों ही अच्छे लगने लगे। नए फ़लक,  नए आसमान, नई ज़मीन सबकुछ उन दोनों के लिए नए नए होने-लगने लगे। व्यक्तिगत देखे सपने दोनों ने साझा कर लिया। पंख लगे दोनों के ही और नई उड़ान दोनों के मनमाफ़िक होने लगीं। जिस उम्र में दोनों थे उसमें इन बातों का हो जाना बहुत ही सतही बातें हैं। इसे किसी भी दृष्टिकोण से तूल देने की कोई भी कोशिश करना प्रेम नामक चिड़िया के साथ धोखा है।

विक्रम के सभी रंग मान्या पर चढ़ने लगे और मान्या के भी सतरंगी रंग विक्रम पर। इस दरम्यान विक्रम दिल्ली से कईं दफ़ा मान्या से मिलने बनारस भी गया। दोनों बहनों को दोनों के बारे में सबकुछ पता था। चाचा जी को विशेष मुहूर्त में ख़ूब तैयारी के साथ बताने की मान्या ने तय कर रखा था।

मान्या के गले की ख़राशें बढ़ने लगी। कान में भी दर्द अब तेज़ होने लगा था और हर 10-12 दिन में मुँह में छाले होने लगे थे।

मान्या की माँ, मान्या जब 3 साल की थी तभी चल बसी थीं। गले के कैंसर की वज़ह से। और अनुवांशिक रूप से गले का कैंसर मान्या में भी संचिरत हो आया था और पल रहा था। मान्या ने चाचा से या किसी को भी बताई होती या डॉ से राय ली होती तो हो सकता था कि कैंसर शुरुआती दौर में पकड़ में आ जाता और इलाज संभव हो सकता था।

चाची जिस दिन डूब के मरी थी, उसके एक रोज़ पहले ही चाचा ने बुरी तरह से चाची को पीटा था जब केवल ये सब देखने वाला मान्या और मिठ्ठू तोता ही था। बीच बचाव में मान्या के गले पर चोट लगी थी तब से ही मान्या के गले की ख़राशें बढ़ने लगी थीं और उसके गले की मोटाई भी। एग्जाम वाले दिन हद से बाहर जाते दर्द के बावजूद मान्या ने न किसी को ख़बर लगने दीं ना ही डॉ से मिली। कम से उसे विक्रम से तो ये बात नहीं ही छुपानी चाहिए थी।

विक्रम जाना तो सही पर तब जब मान्या के गले का कैंसर उसके शरीर के ख़ून में मिलकर आधे से ज़्यादा शरीर तक पसर चुका था। चाचा भी जान ही गएँ। चाचा के दोस्त भी, चाचा के दोस्त भी, पड़ोसी भी। डॉ को दिखाया गया तब तक देर हो गई थी। वहीं.. चिड़िया चुग गई खेत तो अब क्या ?

दोनों छोटी बहनें कुछ समझ ही नहीं पाई। पहले माँ को अचानक ही खोया फ़िर माँ से भी प्यारी दीदी को ऐसे खोते हुए, दूर जाते हुए, दर्द से कराहते हुए देख रही थीं। विक्रम बड़ी हिम्मत जुटा के मिलने आता था मान्या से। मिलता कम देर ही था ज़्यादातर वक़्त गंगा किनारे जाता, वहाँ बैठता और कभी-कभी  रोता और मान्या के चाचा को कोसता।


समन्दर जितने दर्द को झेलकर उससे पार न पाकर एक दिन मान्या भी चली गई ठीक वैसी ही जैसे लाखों लोग गुमनामी में कैंसर की जंग हारकर दुनिया को विदा कहते हैं और क़रीबी लोगों को छोड़ कोई नहीं जानता कि कहीं कोई कैंसर की वज़ह से नहीं रहा। ठीक ठीक वैसे ही जैसे सूरज डूब जाता है चलते चलते अचानक ही और बहुतों को भनक तक नहीं लगती।

सबकुक धीरे धीरे फ़िर से पटरी पर आने लगता है, जीवन की यहीं सबसे ख़ूबबसूरत बात है। ज़िन्दगी की ट्रेन ज़्यादा देर तक नाउम्मीदी की प्लेटफॉर्म पर नहीं टिकती। चाचा पहले से ज़्यादा धार्मिक हो गएँ। पाप के फल भोगने के डर से आदमी माला जपने को विवश हो ही जाता है। पाँचों पहर की नमाज़ अदा करना ज़रूरी काम हो जाता है। 

दोनों छोटी बहनें बड़ी हो रही हैं, दुनिया से रूबरू हो रही हैं। कहीं कोई तो आसमान है जो उनके ही उड़ने के लिए उनके इन्तज़ार में है। 

विक्रम एयर फोर्स के वेस्टर्न कमांड में अफ़सर बन गया है और दुनिया की नज़र में, अपने दोस्तों, क़रीबियों की नज़र में उसके जितना ख़ुश इंसान शायद ही कोई हो। पर असलियत तो विक्रम जानता है और वो मिठ्ठू तोता जो मान्या के न रहने के बाद विक्रम के घर पर नया ठिकाना पा लिया था। 

विक्रम के घर वाले विक्रम के लिए लड़की ढूँढ रहे हैं। लकड़ी कैसी होनी चाहिए इस सिलसिले में विक्रम ने अपनी राय साफ़ रख दी है कि माँ को पसंद आ जाए उस लड़की का हाथ थाम लेगा वो पर एक शर्त के साथ कि लड़की का कोई चाचा नहीं होना चाहिए तब ही...

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