3 अप्रैल 2021

दुनिया संकरी है...

तुम मुझमें समाना ऐसे
जैसे आमीखाई की कविताओं में दर्ज़ है युद्ध
जैसे मुक्तिबोध की कलम से दर्ज़ हुए सारे पहलू
जैसे मंटो की कहानियों में है पसरी अमानवीयता
जैसे राहुल सांस्कृत्यायन के मन में था घुमक्कड़ी
जैसे प्रेमचंद की कहानियों में है गाँव और महाजन
जैसे गर्मी के दिनों के पास है सुकून भरी रात
जैसे प्यासे समन्दरों के लिए है नदी
जैसे चाँद के लिए है धरती
जैसे रोने और हँसने के लिए है आँख
समझ गई ना तुम ?


इतिहास पढ़ने वाली लड़की से
गणित पढ़ने वाले लड़कों को मुहब्बत नहीं करनी चाहिए
और
एक उदास लड़की को
हँसाने के लिए किए गए सारे जतन
पीढ़ी दर पीढ़ी सभी को सिखाने की अनिवार्यता होनी चाहिए।
कविता में उतर आए बेमतलब की बातों के लिए
निकाली जाने वाली व्याख्याएँ कवि के लिए वरदान है
ठीक-ठीक वैसे ही
हमारा मिलना और प्यार करना
भविष्य में दुनिया को बचाने का एक ज़रिया होगा, यक़ीन करो मेरा..

पता है तुम्हें ?

बहुत कम समय बचा है
हमें जल्दी से मिलना होगा
"भूल जाना मुझे" की जगह
हमें दुहराना होगा "हम कभी नहीं भूलेंगे"
हमें उन दो शहरों की गलियों से गुज़रना होगा
जहाँ बेमन से बीता हम दोनों का बचपन
हमें हर शहर में दर्ज़ करानी होगी अपनी उपस्थिति
हमें नीले फूलों को खिलते हुए देखना होगा रोज़
हमें नदियों, पहाड़ों, सड़क और इमारतों को हटाना होगा
क्योंकि.. हमारे प्यार के लिए, ये दुनिया बहुत संकरी है।


:)

9 फ़रवरी 2021

दूसरी कहानी

पहली कहानी - पहली
________________________

मोहब्बत में इंसान अधूरा होकर रह जाता है, और शायद पूरा भी। एक प्यारी लड़की एक लड़के के लिए उससे भी ज्यादा ज़रूरी कब बन गई, लड़के को ख़ुद पता नहीं चला। लड़की को पता था मगर वो कभी बोलना ही नहीं चाहती थी। कभी-कभी सोचता हूँ कि प्यार करते हुए लोग भविष्य की बातों पर बहुत ज़्यादा यक़ीन करके ख़ुद को वर्तमान से पूरी तरह तो नहीं मगर एक हद तक अलग कर लेते हैं, जो कि होना नहीं चाहिए।

एक ऐसा लड़का जो शायद भटक रहा था किसी के सच्चे साथ के लिए, साथ जो बंधन तो क़तई न बने। कोई ऐसा मिले जो उसका हाथ थामकर कहे कि बस, अब तुम रूक जाओ। पिछले साथ में लड़की को अनुभव ऐसे मिले थे कि वो प्यार को बंधन ही मानती आयी थी। उसी लड़की से लड़का मिला और दोनों के दोनों का साथ भा गया। बादलों के बीच से गुज़रने वाली सुनहरी धूप की तरह वो लड़की उसकी ज़िंदगी में आई। बातों का सिलसिला शुरू हुआ। लड़के के पास बेशुमार कहानियाँ होतीं और लड़की के पास पहाड़ जितना सुनने का धैर्य। कभी ख़ूबसूरत गाने भेजे दोनों ने एक दूसरे को, तो कभी पसंद नापसंद की बातें। कविताएँ एक होती थीं पर उसमें लिखे हुए शब्द दोनों के शामिल होते। हद चाय पसंद करने वाला लड़का अब कभी-कभार लड़की की पसंदीदा कॉफ़ी भी बनाकर पी लिया करता था। प्रेम हमें रबड़ बना देता है, मालूम ? नहीं मालूम तो प्रेम कीजिए और अपनी नापसंद को पसंद बनने का चमत्कार देखिए।

पर वो कहते हैं न कि नियति कभी-कभी दो लोगों को बिछड़ने के लिए भी मिलवाती है। ठीक ऐसा ही इन दोनों के साथ भी हुआ। एक समय बाद लड़की कहती रही लड़के से- "तुम जाओ उस लड़की के पास जो तुम्हें अच्छी लगती है, मैं तुम्हें कभी न कभी भविष्य में निराश करूँगी ही।" लड़की के बार-बार कहने के बावजूद भी लड़के ने कभी अलग होने की बात तक नहीं सोची। उसने शादी का प्रस्ताव भी रखा पर लड़की ने बात भविष्य पर छोड़ने को कह कर वर्तमान में साथ चलने को कहा। परिस्थितियाँ समय के साथ बनने के बजाय और बिगड़ती चली गई। लड़के बंद मुठ्ठी से ज़्यादा देर तक नहीं बहल सकते, मालूम ? बातें न के बराबर होने लगीं और ग़लतफहमियाँ रास आने लगीं। रिश्तों के टूटने की ज्यादा वज़ह ग़लतफहमियाँ ही होती हैं। लड़की का शक़ करना, लड़के को रोकना, ये सारी परिस्थितियाँ मिलकर लड़के के मन को अंदर ही अंदर परेशान करे जा रही थी। इंसान का मन ऐसा है ना कि वो जब टूटने लगता है तो वो बहुत जल्दी उस परिस्थिति पर काबू करने की कोशिश करता है जिससे वो जूझ रहा होता है। लड़की के लिए लड़का और मुश्किलें खड़ी करने लगा। और काबू पाने के क्रम में आख़िरकार अंत में एक फैसले ने दोनों को अलग कर दिया कि लड़का अपनी पसंदीदा लड़की के पास लौटेगा क्योंकि अब लड़की को उससे कोई परेशानी नहीं थी।

प्रेम में निराशा जैसे भावों को जगह मिलनी ही नहीं चाहिए। प्रेम अगर सच्चा है तो मिलन होगा ही चाहे मृत्यु के बाद ही क्यों न हो। मालूम ?

❤  :)

7 फ़रवरी 2021

7 दिन की 7 कहानी.. पहली कहानी :)

लोग अक्सर अपनी असलियत जाहिर करने से डरते हैं, पर मुझे ख़ुद को लेकर कभी भी कोई डर नहीं था। रिश्तों की नींव सच्चाई पर टिकती है। मैंने तुमसे हर एक बात बताया, तुम्हारे आने से पहले मेरी ज़िन्दगी में कौन था या मैं अपनी ज़िन्दगी कैसे जीता हूँ ताकि किसी और से ये सब बातें जानकर तुम्हें तकलीफ़ ना हो।

ये कहना कि मैं किसी से प्रेम करता हूँ और उस प्रेम को निभाना, दो अलग अलग चीज़ें हैं। मैंने अपने प्रेम को तुम्हारे लिए हमेशा समर्पण माना। लोगों के आने जाने से विचार तो बदल जाते हैं पर कुछ ऐसी भावनाएं जो समय के साथ उत्पन होती हैं वो नहीं बदल पाती ताउम्र।

मैं नहीं जानता तुम्हें मुझसे सच्ची मोहब्बत थी या नहीं पर तुम हमेशा से मेरे लिए सर्वोपरि थी। तुम्हारे चले जाने के बाद मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं थी और ना आज है। परिस्थितियां इंसान को मजबूर कर देती है अलग होने के लिए, वरना कौन ऐसा शख़्स होगा जो अपनी मुस्कुराहटों वाली दुनिया से अलग होना चाहेगा।


तुम्हें मेरे प्रेम का एहसास तब हुआ जब मेरी भावनाएं खत्म होने वाली थी, प्रेम तो अटल था। यकीं मानो यदि तुम आज भी लौट कर आई तो मैं तुम्हें बिल्कुल पहले की तरह ही मिलूंगा।


लेकिन मैं ये जानता हूँ कि अब तुम कभी नहीं आओगी, अपनी नई दुनिया में तुम सदा ख़ुश रहना। मैं एक ऐसा प्रेमी बनकर रह गया जो अपनी प्रेमिका को दुआओं के सिवा अपनी दुनिया में जगह तक ना दे पाया। मुझे ख़ुशी है कि हम आपसी सहमति से अलग हुए, पर तुम्हारे मना करने के बावजूद भी मैंने तुम्हें एक दिन मैसेज कर ही दिया। वो दिन मेरे लिए था ही इतना ख़ास, मुझे आज भी लगता हैं कि तुमने मेरे उस मैसेज के लिए झूठी बेरुखी दिखाई थी। ख़ैर, मैं उस दिन दिल(?) के हाथों मजबूर था, वरना मैं कभी तुम्हें कॉल या मैसेज नहीं करता। तुम्हारी ख़ुशी जो शामिल थी इस अलगाव में।


तुम्हारे साथ बिताया गया हर एक पल मेरे जेहन में हमेशा संचित रहेगा। तुम्हें मालूम ? ऐसा लगता है जैसे कल ही की तो बात है, तुम अपने घरवालों की नज़रों से बचकर छत पर आकर मुझसे बात कर रही हो और मैं इधर तुमसे बात करते हुए ये सोच रहा हूँ कि जो किताबें तुम्हें पसंद आई है वो तुम्हें कब भेजूं। तुम्हारी वो पहली कलाकारी जो तुमने एक बुकमार्क को अपने सारे नेलपेंट के कॉम्बिनेशन से कलर किया था और सिर्फ़ एक बार कहने पर ही तुमने मुझे भेज दिया वो, आज भी मैंने वैसे ही सहेज कर रखा है जैसे धरती किसी खो गए बीजों को संचित करके रखती है, पौधों के ख़त्म हो जाने के बाद भी।


ये लड़का क्या चाहता था ? तुमसे बस इतना ही कि मुझे भूलना मत कभी, कभी भी नहीं। महीने में एक या दो बार भी याद कर लेना।  मैं इंस्टा पर फोटोज़ डालते रहता हूँ तुम्हारे कहने पर, उसे देखती रहना हमेशा। मेरा ब्लॉग भी चेक करती रहना, कर ही रही होगी तुम, मुझे उम्मीद है।
मैंैैंैंंै
ख़ैर, छोड़ो बातें पुरानी हो गई हैं। मैं कोशिश करूँगा कि अब मैं ना भटकूं और मैं अब ख़ुद को ख़ुद के पास ही रखूंगा, दुनिया वालों से अपनी बातें जितना हो सके उतना कम बाँटूगा। पर इसका वादा मैं ख़ुद से न अब कर सकता हूँ न ही तुम्हारे आने के पहले कभी किया था।

Face with tears of joy

❤ :)

1 फ़रवरी 2021

जनवरी 2021 :)

साल 2020 कैसे भी बीत गया, हालांकि 2020  मेरे लिए बढ़िया रहा। लॉकडाउन मेरठ में और फ़िर बिहार में बिताया गया समय और फ़िर आख़िरी के 3 महीने दिल्ली में वो भी घूमते हुए.. अच्छा रहा। सबसे अच्छा तो ये रहा कि मुझे नीमच में प्लूटो मिला और उसे उठा के मैं दिल्ली ले आया।

मुझे लगता है मेरा समय बाकियों से कुछ जल्दी चलता है। फटाक से दिन बीत जाता है और महीने भी और साल भी। करने को कितना कुछ फ़िर भी बाकी रह जाता है।

इस साल की शुरुआत बुरी तो नहीं कह सकते एक अलग अनुभव के साथ हुई। घर वालों को लगता है मैं पढ़ नहीं रहा केवल घूमता रहता हूँ जबकि उन्होंने मुझे दिल्ली पढ़ने के लिए भेजा है। सही भी है मैं पढ़ कम ही रहा होता हूँ और घूमता ज़्यादा हूँ क्योंकि मेरा मन जो कहता है मैं वो करता हूँ। हालांकि मैंने जो भी किया है घरवालों को हमेशा बताया है कि हाँ मैं पढ़ नहीं रहा और घूमने के बारे में, कविता लिखने में, फ़िल्म देखने में और फलाने लड़की से बात करने में और थोड़ा बहुत मन हुआ तो पढ़ लेने में भी समय लगा देता हूँ। तो 1 जनवरी 2021 को घर वालों की तरफ़ से फरमान ज़ारी हुआ कि मैं पढूँगा तब ही वे महीने के ख़र्चे का पैसा भेजेंगे नहीं तो नहीं। मैंने भी कह दिया मेरा मन होगा पढ़ने का तो ही पढूँगा आपलोगों की धमकी देने से तो मैं पढ़ने से रहा। प्लूटो के ले आने से भी घर वालों को दिक्कत हुई। मैंने ये भी कहा पापा को कि मेरा मन कहेगा कि 4 और प्लूटो रख तो मैं 4 और प्लूटो लाऊँगा, आपके पैसे नहीं भेजने हैं मत भेजो। गतिरोध ज़ारी है। आगे क्या होना है मुझे भी नहीं पता, हाँ इतना ज़रूर है कि घर तो अब मैं मुँह खोल के पैसे के लिए नहीं कहूंगा।

 "आख़िर कब तक एक बेटा अपने बाप से पैसे लेता रहेगा ?" इसपर अपुन कभी फ्यूचर में फ़िल्म बनायेगा 😎



1 जनवरी को ये सब बात हुई और 2 जनवरी को मैं गोधरा विनोद के पास नया साल, जन्मदिन मनाने और सूरत-वडोदरा घूमने के लिए निकल गया।

इंजीनियरिंग के हम चार ज़िगरी दोस्त (विनोद, विजय, मियां) जमा हुएं और ख़ूब मस्ती हुई। जन्मदिन बढ़िया से मन गया पर मेरे लिए तो हर रोज़ ही नया साल और हर रोज़ ही जन्मदिन होता है।





प्लूटो को संगीता दी के घर छोड़ गया था मगर 4 दिन में ही प्लूटो ने अपने रंग दिखा दिए और संगीता दी-उनके बच्चे प्लूटो से परेशान हो गए। सूरत-वडोदरा न जाके मैं वहाँ से एक तरह से भागते हुए दिल्ली आया, मियां और विनोद को नाराज़ करके।


गुजरात से लौटा तो चाँदनी चौक के शीशगंज गुरुद्वारा चला गया। यहां मैं बराबर जाता रहता हूँ, सुकून है यहाँ। वहीं से फ़िर हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया और अमीर ख़ुसरो की दरगाह भी चला गया।


जनवरी में मैंने ये सब पढ़ा-

ज़बाने यार मनतुर्की ~ प्रबोध कुमार गोविल (गुजरे दौर की अभिनेत्री साधना की जीवनी है)

कम से कम ~ अशोक वाजपेयी (2015-2018 के बीच अशोक जी की लिखी गई  एक ख़ास तेवर की 
कविताएँ)

UPSC और IGNOU के सिलेबस में शामिल 95 कहानियाँ ❤

अज्ञेय जी के कुछ निबंध

मॉडर्न हिस्ट्री के कुछ चैप्टर

हिंदी साहित्य के वीडियो क्लासेज (मेरा ऑप्शनल हिंदी साहित्य ही है)

पवित्र क़ुरआन शुरू की है मगर अल्तमश ने ये कह के पढ़ने के लिए मना किया कि वो घर जाके उसके पास जो ऑथेंटिक क़ुरआन है वो मुझे भेज देगा तो उससे पढूं।



जनवरी में इन फ़िल्मों से गुज़रा-

Jojo Rabbit, 2019 ❤❤❤
Sir, 2021 ❤❤
A Beautiful Mind, 2001 ❤ ❤❤❤❤
Forrest Gump, 1994 ❤❤
The White Tiger, 2021 ❤
Atonement, 2007 ❤❤
One Day, 2011 ❤ ❤❤
Pride and Prejudice, 2005 ❤ ❤ ❤❤
Little Women, 2019
The Last Color, 2021
102 Not Out, 2018 ❤
Tribhanga, 2021 ❤❤

हॉटस्टार पर बहुत सारी सॉर्ट फ़िल्म हैं, उन्हें भी देखा।

Apollo 13, Anna Karenina, The Social Network
शुरू की है।


वैसे फ़िल्मों के लिए 
अब से दी जाने वाले टाइम में कटौती करना कंपल्सरी करूँगा, अभी सोचा है देखते हैं कर पाता हूँ कि नहीं!

गाने तो 24 घण्टे में 27 घण्टे चल ही रहे होते हैं। रेडियो पर या अमेज़ॉन प्राइम म्यूजिक पर। इस महीने रहमान सर के उन गानों को ख़ूब सुना जो उन्होंने साउथ की फ़िल्मों के लिए बनाए हैं। गाने के बोल ऊपर से जाते हैं मगर रहमान सर की धुन सीधा दिल को छेदते हुए आर-पार

वैसे जनवरी बीतने में टाइम लगा है, मेरा समय थोड़ा धीमा हो गया था इस महीने, पता नहीं क्यों पर धीमा हो गया था। (मुझे पता है क्यों पर मैं बताऊँगा नहीं 😂)

फ़रवरी में ये सारी किताबें पढ़ जानी है। चम्पारण 1917 तो शुरू कर भी दी है।



फ़रवरी में IGNOU के एग्जाम भी हैं। एडमिट कार्ड आ गया। 10, 11, 12, 13, 25, 26, 27 फ़रवरी को एग्जाम है। 7 पेपर में से 4 पेपर की तैयारी हो चुकी है। 3 की करनी है। पता है ? मुझे ख़ुशी इस बात की हो रही है कि मैं 7 दिन एग्जाम देने जाऊँगा तो 7 दिन घूमने का मौका मिलेगा 🙈

फ़रवरी में ही जयपुर जाने का सोचा है बस 2 दिन के लिए। मौका और मन हुआ तो झोला उठा के घर्मशाला भी निकल सकते हैं। फ़रवरी में तीसरा फ्लैटमेट पंकज ब्रो भी आ रहे हैं। दीवाली से ही वे अपने गाँव से चले हैं। अब वे फ़रवरी में दिल्ली पहुंचेंगे।

प्लूटो के रेबीज के टीके भी लग गएँ अब इससे कोई डर नहीं। फ़रवरी के एंड में दुबारा टीके लगेंगे, फ़िर एक साल बाद। घर वाले ज़िद्द पर उतर चुके हैं कि प्लूटो बड़ा हो गया इसे कहीं बाहर अब छोड़ दो। पर मैं उनसे ज़्यादा ज़िद्दी हूँ। जबतक दिल्ली में हूँ प्लूटो और मेरा साथ रहेगा किसी भी कीमत पर 💃

हिंदी साहित्य की वीडियो क्लासेज पर और टाइम देना होगा। हालांकि इग्नू के एग्जाम में ही पूरा फ़रवरी निकलता दिख रहा है पर कोई ना.. सब मैनेज करेंगे। ट्विटर कुछ 2-3 ग्राम कम कर दिया है पर इससे काम नहीं चलना कम से कम 80-90 ग्राम तक ट्विटर कम करना पड़ेगा। 27 जून अभी यूँ लपक के आ जाने वाला है।

हाँ, सबसे ज़रूरी बात वही कि मेरा मन जो कहेगा मैं करूँगा। क्योंकि मन की सुनते हुए मैंने जाना है कि ज़िन्दगी का मज़ा कैसे लिया जाता है। आप भी वही सोच रहे हैं ना कि पैसे है तभी तक मज़े हैं ? नहीं, पैसा बहुत मामूली फैक्टर है। ख़ुश रहने के लिए ज़रूरी इंग्रेडिएंट्स में पैसा बहुत बाद में आता है। यक़ीन नहीं होगा कहीं आपको, मत कीजिए मेरा क्या 😂

फ़रवरी, सबके लिए ख़ुशियाँ लाए। सब में मैं भी आता हूँ और ख़ुशी का ठिकाना किधर है अपुन जानता है 😎


❤ :)

15 जनवरी 2021

भूख का इलाज

लगता है मुझे इस दुनिया की समझ होने लगी है। पहले मैं नहीं समझ पाता था कि अचानक कैसे उजाला हो जाता है और शोरगुल की आवाज़ें कानों में आने लगती हैं, फ़िर ख़ूब देर के लिए अँधेरा भी और सबकुछ एकदम शांत-शांत। अब समझ आया है कि दिन-रात इसी को कहते हैं। मेरी माँ जो मुझे जन्म दीं और कुछ दिनों तक मुझे पाल पोस कर बड़ा करके पता नहीं कहीं चली गई फ़िर कभी नहीं लौटी। वो मुझे प्यार करती थीं मगर बड़े भाई को डाँटती थी। तब सुना था कईं दफ़ा कि "बड़े होके तुम शेर बनोगे, शेर जैसे रहा भी करो" मैंने शेर नहीं देखा है शेर के बारे में सुना है बस। बड़ा भईया को शेर क्यों बनाना चाहती थीं माँ ? माँ वापस लौटी क्यों नहीं ? लौटतीं तो पूछता।

मैं बड़े शहर के छमंज़िले इमारत में रहने आ गया हूँ। शेर बनने वाला भाई और बहनें पीछे छूट गईं। वो चाचा भी मेरे जो कम बोलते थे और जो दिन के ज़्यादातर घण्टे गंदे नाले में ही पड़े रहके बिताते थे थे। माँ के चले जाने के बाद वही हमसब के लिए उम्मीद थे। मगर अब पीछे की बातों को याद करने में क्या रखा ? नईं जग़ह मुझे भा गयी है। यहाँ बालकनी है, छत भी और भी जिसकी ऊँचाई जितनी इमारत दूर-दूर तक नहीं दिखती है। माँ को चेहरा भी अब भूलने लगा हूँ। माँ लौटी क्यों नहीं ? ये सवाल मेरा पीछा कभी नहीं छोड़तीं।

हम छठी मंज़िल पर रहते हैं तो बगल की इमारत की पाँच बालकनी हमेशा मेरी नज़रों के सामने ही रहता है, उनकी छतें भी.. छतों पर क्या कुछ होता रहता है.. उसे देख-देख मैं बहुत हद तक बोर हो गया हूँ। पर जो एक बात उस छत पर घट रही होती है उसका ज़िक्र मैं करना चाहूँगा.. शायद जवाब मिल जाए कि मेरी माँ हमतक वापस क्यों नहीं लौटी ? एक काली बिल्ली जो अपने दो छोटे-छोटे बच्चों के साथ उसी बगल वाली इमारत की सीढ़ियों वाले घर के टिन की छत पर अपना बसेरा बसाई हुई है। दोनों बच्चे धारीदार धब्बे अपने बदन पर लिये ख़ूब उछल-कूद मचाते हैं। शुरू शुरू में उन्हें देखकर अच्छा लगता था और मैं अपने उन दिनों को याद करके मुस्कुराता था जब मैं अपने भाई-बहनों के साथ खेला करता था। एक समय के बाद एक दिन मेरे मन में इच्छा जगी कि काश मैं इन दोनों बच्चों को खा जाता। अचानक से आए इस विचार से मैं हैरान हो गया था। मगर ये सब कुछ अभी सोचने के स्तर पर ही था। इसे हक़ीक़त में बदलना नामुमिकन ही था। एक तो उस छत पर जाना मुमकिन नहीं दूसरा उन बच्चों की माँ मुझे उनके आस-पास भटकने भी क्यों देती भला ? उनकी माँ तगड़ी थी और कभी-कभार मुझे ऐसे घूरती जैसे आँखों से ही कह रही हो "ऐ प्लूटो, इधर मत देखा करो, अपने काम से काम रखो और मेरे दिल के टुकड़े के लिए अपने मन में गंदे ख़्याल लाए तो ख़ैर नहीं तुम्हारी, समझ आई बात?" मुझे उसकी आँखें देखकर डर लगता था परंतु वो भी मुझतक नहीं पहुँच सकती थी तो मैं अपने चेहरे पर डर का भाव किसी भी कीमत पर आने नहीं देता था। ये सब कुछ महीनों तक चलता रहा साथ में ये सवाल रह रह कर मेरा पीछा भी करती रही कि मेरी माँ वापस क्यों नहीं लौटी ?

ऐसे ही दिन गुज़रते रहे। उजाला-अँधेरा का सिलसिला चलता रहा, मैं बड़ा होता रहा और वे दोनों बच्चे भी अपना उछलना-कूदना बढ़ा दिए थे। ये ख़्याल कि उन बच्चों के मांस पर केवल मेरा ही हक़ है, बहुत तेज़ी से मेरे ऊपर हावी होती जा रही थी। इमारत और उनकी माँ की बाधा हटाने की तरक़ीब सोचने लगा था मैं। जबकि मुझे मेरे पसंद का खाना भरपेट रोज़ समय से मिल ही जाता था। पर उन दोनों बच्चों के मांस में जो मज़ा होगा वो इधर कहाँ ? नाले में पड़े रहने वाला मेरा चाचा कहता भी था घर की मुर्गी दाल बराबर, अब समझ आई वो बात मेरे।

बारिश का मौसम ख़त्म होने को था और सर्दियां चढ़ने को थी। ऐसे ही एक सुनहरे दिन को मैं सुबह जल्दी ही छत पर उन दोनों बच्चों के बारे में सोचते हुए टहल रहा था। नीचे वाली बालकनी में एक औरत फ़ोन पर बात करते हुए ख़ूब ज़ोर ज़ोर से ठहाके लगा रही थीं जिसकी वज़ह से मेरे सोचने में खलल पड़ रहा था, बावजूद मैं सोचने में मशगूल रहा और अगले ही पल मेरे पैरों तले छत की फर्श खिसक गई ये देखकर कि उन बिल्लियों की माँ अपने मुँह में एक कबूतर दबाए हुए शान से टिन की छत पर मुझे दिखी। तीनों क़रीब आ गए और माँ ने एक आख़िरी झटका कबूतर के गर्दन पर दिया और कबूतर की रही सही कसर निकाल दीं। दोनों बच्चों की आँखों में अज़ीब ख़ुशी मेरे इमारत से ही कोई भी देख सकता था। ये सब देखते हुए आज न चाहते हुए भी डर मेरे चेहरे पर साफ़ झलक रही थी और उन बिल्लियों की माँ कनखियों से मुझे देखती और हल्के से जीभ निकाल कर मुस्कुरा देती। मैं तेज़ी से छत पर से उतरा और कमरे में जाकर टेबल की नीचे बहुत देर तक सहमा, बैठा रहा.. वहीं नींद भी आ गई। दोपहर को जब उठा तो तेज़ भूख से बेहाल था मैं और अब तो मैंने कबूतर के मांस भी देख लिये थे तो भूख की तीव्रता में अच्छी-खासी बढ़ोतरी हो गयी थी। पेट कैसे भी भरा और जैसे तैसे ख़ुद को छत पर ले गया। तीनों जने ये पैर फैलाकर गहरी निद्रा में मगन थे। यहां वहां कबूतर के फर उड़ रहे थे। मुझे कबूतर पर दया आ रही थी जिसके नर्म गुलाबी मांस अब बिल्लियों के पाचन क्रिया में समाहित हो चुका था।

दुनिया इतनी क्रूर भी हो सकती है कि भूख के लिए निर्दोष कबूतर की जान ले ली जाए ? ऐसी बातें मेरे मन में क्यों उठ रही हैं ? जबकि मुझे मौका मिल जाए तो बिल्ली के उन दोनों बच्चों के भी परखचे उड़ा दूँगा। पर यही बात है ना.. मुझे पता है कि बिल्लियों के मांस मेरे नसीब नहीं तो मैं निर्दोष कबूतरों की पैरवी कर सकता हूँ। मानवाधिकार जैसा कुछ अख़बार में पढ़ते देखा है मैंने मालिक को।

ख़ैर, दिन बीतते गएँ और बिल्लियों की माँ हर 2-3 दिन में एक बार एक कबूतर मुंह में बड़े शान से दबाती आती और तीनों बैठ कर मज़े लेकर मुझे बीच-बीच में देखते हुए खाते जाते। मैं अफ़सोस करने के अलावे और घड़ी-घड़ी जीभ निकालने के सिवा कर ही क्या सकता था ? वे शुरुआती के बड़े मायूसी भरे दिन गुज़रे मेरे। 

मेरा छत पर जाने का रत्ती भर भी जी नहीं करता है अब मगर, मेरा मालिक मुझे जबरदस्ती छत पर रख आता है। सीढ़ियां चढ़ना तो जान गया हूँ उतरने में मौत आ जाती है। मायूस नज़रों से मरे कबूतरों के लिए मन में उठते दया भाव और बिल्ली के बच्चों के मांस खाने के उठती प्रबल इच्छा के बीच संतुलन बनाना कोई आसान काम नहीं है मेरे लिए.. पर करना पड़ता है। दिल्ली में रहने का सुख ही सबकुछ नहीं होता न.. ये निगोड़ी जीभ पर कौन लगाम लगाये ? 

वो सवाल जो मेरा पीछा नहीं छोड़ती थी, कुछ दिनों के लिए ग़ायब हो गयी मगर उस छत के दृश्य जब बार-बार एक जैसे ही होने लगे तब वो सवाल फ़िर जहन में उठ खड़ा हुआ। ये कुछ वैसा ही था कि बादल के आ जाने से हम कुछ पल के लिए सूरज की रोशनी से महरूम रहते हैं। माँ लौटी क्यों नहीं ?? ये सवाल फ़िर हावी हो गया।

ऐसे ही एक दिन बिना मन से छत पर टहल रहा था और पुरजोर कोशिश में था कि सामने की छत पर नज़र न ले जाऊँ। मगर आदतन नज़र गयी और इस बार बिल्लियों की माँ, दो कबूतर अपने मुंह में दबाई टिन की छत पर शान से बैठने के फ़िराक़ में थी। उन दो कबूतरों में एक कबूतर बड़ा और एक बहुत ही छोटा था। शायद माँ-बेटे या माँ-बेटी या ऐसे ही किसी दो कबूतर मार के लाई थी शैतान बिल्ली। 

आज ये सब देखते हुए अचानक ही मेरे मन में ख़्याल आया कि बाकी दिनों के कबूतर भी तो किसी के माँ-बाप होंगे। वे अपने बच्चों के लिए खाने की खोज में निकले होंगे और दुर्भाग्यवश इस शैतान बिल्ली के निवाले बन गएँ। इन कबूतरों के बच्चे इनका इंतज़ार करते तो होंगे कि माँ अब आयेंगी और जो कि सच ये है कि उनकी माँ कभी नहीं लौट सकती, वे सब भी मेरे जैसे एक सवाल से कभी पीछा नहीं छुड़ा पाते होंगे कि माँ लौटी क्यों नहीं ?

मेरी माँ भी नहीं लौटी। माँ शेरों की बात करती थी। शेर जैसे बनो। चाचा भी शेरों की कहानियाँ कहते थे। जिस गाँव में मेरी पैदाइश हुई वो जंगलों से घिरा हुआ था। उन जंगलों में शेर होने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता।

..तो आज जवाब मिल गया मुझे कि मेरी माँ वापस लौटी क्यों नहीं ? पर अब मेरे पास जवाब है भी तो क्या ही फ़र्क़ पड़ता है। माँ अगर लौट आई होती तो वो हमारे साथ ही होतीं और मेरा मालिक जब मुझे दिल्ली ले आने के लिए मुझे उठाने जाता तो माँ ऐसा कभी नहीं करने देती और मैं दिल्ली के इस छमंज़िले इमारत पर बिल्लियों की मज़ेदार दावत के किस्से नहीं सुना रहा होता। 

अब मन से छत पर जाता हूँ क्योंकि मन न भी हो तो मेरी नहीं चलनी। कबूतरों के लिए दया भाव मेरे अंदर अब असीमित है। कभी-कभी सोचता हूँ कि शाकाहारी हो जाऊँ। जिस छत पर बिल्लियां हैं उधर मैं अब देखता तक नहीं। मुझे ख़ुशी होती है कि मैंने अपने विचारों और जीभ पर नियंत्रण कर लिया है। 

मेरे छत की दूसरी तरफ़ वाली छत जिसपर जाना कोई बड़ी बाधा नहीं। उस छत पर कईं महीनों से न पहनने लायक कपड़ों के भरे बोरे रखे हुए हैं। उनमें एक दिन हलचल हुई तो मैंने उसपर ग़ौर करना मुनासिब समझा, वैसे भी छत पर मैं नज़ारा लेने ही जाता हूँ। उन कपड़ों के बोरे में कुछ ज़िंदा सा दिखा जो 5-7 की संख्या में थे जो चीं-चीं-चीं की आवाज़ कर रहे थे। चूहे जैसे दिखे और अचानक ही मेरे मन से अब कबूतरों के लिए दया भाव छूमंतर हो गई। मैं इस जुग्गत में हूँ कि इस छत पर ख़ुद का जाना अब कैसे भी मुमकिन कर पाउँ। 

पता है ? "भूख का कोई इलाज़ नहीं" ये सोचते हुए मुझे उस शेर की याद आ रही है जिसने माँ को मुझ तक वापस लौटने नहीं दिया।