क्यूँ ओट हूँ मै खुद का,
फिर कभी खींचता हूँ खुदी को...

क्यूँ हर खुशी के पीछे भागता हूँ,
फिर कभी साथ देता हूँ गम का...
तो फिर कभी खामोशी का आसरा लेकर
कह जाता हूँ बहुत कुछ...
ये हैं मेरे उसूल या इन्हें
मानू जिंदगी के फलसफ़े...?
जब दूर जाने लगती है जिंदगी,
तब उसूल पीछे रह जाते हैं
जज्बात सिसकियाँ लेती है,
और आँखे डूब जाती है समंदर में
तब जिंदगी बड़े करीब से समझ आती है
तो कभी इनके साथ तो कभी मुस्कुराते हुए,
आगे सरकती जाती है
और फिर इनका होना
जरुरी ही नही बहुत जरुरी हो जाता है |
अब शिकवे नही है उन राहों से
जहाँ खोए है कुछ सपने,
जहाँ से मंजिल दिखी है और दूर...
क्यूंकि अब लगता है कि
खोने के बजाय पाया बहुत कुछ है,
एक खूबसूरत सपना संजोने के लिए
किसी मंजिल को पाने के लिए |
पहले पूछता था खुद से
कि मेरे अपने होने का पता दू कैसे?
अब शीशे के सामने सर झुका के खड़ा ना होकर
होता हूँ आँख से आँख मिलाकर,
और जवाब मिल जाता,खुद से ही |
- "मन"