कॉलेज जाने की मेरे कईं वज़हों में
बेशक एक वज़ह वो भी थी
अलग नहीं थी वो
लाइब्रेरी में दिखी थी मुझे वो
केमिस्ट्री के लैब में मैं उसे
गणित की क्लास में हमदोनों ने
दोनों को देखा था बार-बार कईं बार
बाकी लड़कियों के जैसे ही थी वो भी
पर तस्वीर खिंचाती तो
बारी-बारी से एक आँख ज़रा सा बंद करना नहीं भूलती
कुछ पढ़ती तो पेंसिल उसके गुलाबी होंठों को छू जाते
हँसती तो उसके दाँत उसकी सुंदरता में इज़ाफ़ा कर देते
शायद किसी के नसीब न हुआ उसे देखना रोते हुए
उसकी जानकारी से दूर मैं उसे देर तक निहारता
अपनी बाइक पर
उसे दूर कहीं घूमाने ले जाने की सोचता पर
उससे ये कभी कहना नहीं चाहा
शहर के किस कोने से आती है, जानना नहीं चाहा
ना ही चाहा कभी कि
उसकी जुल्फ़ों के साए में सर रखकर कोई किताब पढूँ
ना ही चाहा कि वो मना करे मुझे सिगरेट पीने से
ना ही उसका पसंदीदा रंग जानना चाहा
ना ही चाहा घण्टों फ़ोन पर बतियाना
ना ही चाहा कि वो मेरी बातों का ऐतबार करे
ना ही कभी किताबों से तारीफ़ के शब्द
चुनकर उसके माथे पर टाँकना चाहा
ना ही हाथ थाम किसी प्राचीर से
पैर लटकाए डूबते सूरज को देखना चाहा
ना ही चाहा गुलाब के बदले में कभी भी गुलाब
ना ही कभी बारिश में साथ भीगना चाहा
ना ही कभी वो सब कुछ चाहा जो साँस लेने के जैसा
बेहद ज़रूरी होता है प्यार में
चाहा बस इतना कि
साहिर होना और 'उसके' इमरोज़ की पीठ पर लिखा जाना!
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