घर के पीछे
दूर तक फैले खेतों में
बारिश का पानी इक्क्ठा हो जाता है
जिसमें दिन भर
बरसाती मेढ़क टर्र टर्र करते रहते हैं
जिन्हें ध्यान देकर न सुना जाए
तो कोई मतलब नहीं।
रात को मेढ़क के साथ
झींगुर भी सुर मिलाते हैं।
मैं दिन में खिड़की से लग के
खेतों से धीमी रफ़्तार में
कम होते हुए पानी को देखता हूँ
और सोचता हूँ-
कविता लिखने के लिए अनुकूल दशा है ये!
तभी माँ आकर कहती है- जा, बाज़ार से सब्जी ला।
पिता आकर कहते हैं-केवल किताबों में ही जीवन नहीं है।
छोटा भाई गाना भेजकर पूछता है-किसकी आवाज़ है ये?
छोटी बहन को समझ ही नहीं आता सूर्यग्रहण की प्रक्रिया।
बड़ी बहन दबे आवाज़ में फ़ोन पर कहती है-दहेज कम क्यों दिया?
दादी अपने कमरे से बराबर आवाज़ लगाती रहती हैं-चश्मा कहाँ है?
शहर का करीबी दोस्त पूछता है-गाँव में रहना कैसा लगता है?
दूर देश की प्रेमिका(?) का मैसेज आता है-कब आ रहे हो दिल्ली?
पड़ोसी शिकायत लेकर आता है-उनके खेतों में हमारी गाय घुस गई है।
किताबों से निकलकर
गाय को अपनी जगह बांध
बाज़ार जाने की सोचता हूँ
सभी आवाज़ एक दूसरे पर हावी होते जाते हैं।
दहेज कम देना पड़े इसलिए
छोटी बहन को सूर्यग्रहण की प्रक्रिया का समझ आना ज़रूरी है।
दादी का चश्मा जगह पर ही है।
बस दोस्त और प्रेमिका को छोड़कर
मैं दिल्ली से गाँव चला आया हूँ।
खेतों में या तो
बारिश का पानी
इक्क्ठा ही नहीं होना चाहिए
या फ़िर कभी-कभी
खिड़की से खेतों की ओर नहीं देखना चाहिए।
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 08 जुलाई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ। :)
हटाएंगहन भाव
जवाब देंहटाएंधन्यवाद :)
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