2 नवंबर 2012

अपने होने का पता...

क्यूँ ओट हूँ मै खुद का,
फिर कभी खींचता हूँ खुदी को...
क्यूँ हर खुशी के पीछे भागता हूँ,
फिर कभी साथ देता हूँ गम का...
तो फिर कभी खामोशी का आसरा लेकर
कह जाता हूँ बहुत कुछ...
ये हैं मेरे उसूल या इन्हें
मानू जिंदगी के फलसफ़े...?

जब दूर जाने लगती है जिंदगी,
तब उसूल पीछे रह जाते हैं
जज्बात सिसकियाँ लेती है,
और आँखे डूब जाती है समंदर में
तब जिंदगी बड़े करीब से समझ आती है
तो कभी इनके साथ तो कभी मुस्कुराते हुए,
आगे सरकती जाती है
और फिर इनका होना
जरुरी ही नही बहुत जरुरी हो जाता है |

अब शिकवे नही है उन राहों से
जहाँ खोए है कुछ सपने,
जहाँ से मंजिल दिखी है और दूर...
क्यूंकि अब लगता है कि
खोने के बजाय पाया बहुत कुछ है,
एक खूबसूरत सपना संजोने के लिए
किसी मंजिल को पाने के लिए |

पहले पूछता था खुद से
कि मेरे अपने होने का पता दू कैसे?
अब शीशे के सामने सर झुका के खड़ा ना होकर
होता हूँ आँख से आँख मिलाकर,
और जवाब मिल जाता,खुद से ही |

                                       - "मन"

9 टिप्‍पणियां:

  1. पहले पूछता था खुद से
    कि मेरे अपने होने का पता दूं कैसे ?
    .....................................................
    क्या बात है ......लाजवाब

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  2. और जवाब मिल जाता,खुद से ही |

    बहुत खूब ...आपकी कविता में अंत तक तालमेल बना रहता है .. जिससे रोचकता बनी रहती है
    बड़ी सटीक कविता।

    बधाई स्वीकारें !!

    ब्लॉग से जुड़ने बहुत बहुत धन्यवाद :)

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  3. अब शिकवे नही है उन राहों से
    जहाँ खोए है कुछ सपने,
    जहाँ से मंजिल दिखी है और दूर...
    क्यूंकि अब लगता है कि
    खोने के बजाय पाया बहुत कुछ है,
    एक खूबसूरत सपने संजोने के लिए
    किसी मंजिल को पाने के लिए | आपकी प्रस्तुति सराहनीय हैं आभार

    जवाब देंहटाएं
  4. कल 04/11/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  5. बहुत खूब ... लगे रहिए ... जय हो !


    पृथ्वीराज कपूर - आवाज अलग, अंदाज अलग... - ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  6. संतुष्टि का भाव ..
    कविता अच्‍छी है

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  7. कविता के क्या कहने ! बहुत खूब ।

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  8. उसूल की बात चली है तो एक किस्सा सुनाता हूँ , मैं कानपुर से दुर्गापुर आ रहा था , कानपुर स्टेशन पर बैठा ट्रेन का इन्तेजार कर रहा था की तभी मेरी नजर एक आदमी पर पड़ी बहुत ही ज्यादा गंदा दिख रहा था , रेल की पटरियों से सामान बटोरता फिर रहा था | सबको मालूम है की रेल की पटरियां कितनी गन्दी होती हैं और उस पर जब स्टेशन कानपुर सेन्ट्रल हो तो कहने ही क्या !
    तभी उसे वहीँ नाली में बिस्कुट का एक पैकेट तैरता हुआ मिला और उसने नाली में आधे डूबे बिस्कुट को उठाया और खा गया | मैं सामने ही खडा सब देख रहा था |
    मैं रेलवे की ये बात हमेशा मानता था की भिखारियों को कुछ देकर उन्हें बढ़ावा न दें लेकिन उस दिन मेरे सारे उसूल धरे रह गए , मैंने अपना सारा खान उसे दे दिया |
    तो मोरल ऑफ द स्टोरी इज उसूल बनाना बहुत आसान है लेकिन व्यावहारिक उसूल बनाना बहुत मुश्किल |
    :)

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