28 नवंबर 2012

कभी-कभी या हर वक्त...

कभी ज़िंदगी के साथ जीया हूँ,
तो कभी छोड़ आता हूँ पीछे कहीं...
कभी हर गम को पीता हूँ,
तो कभी छोड़ देता हूँ आँसूओं के साथ उन्हें...
कभी लिखता हूँ खुद कि तक़दीर को,
तो कभी उसके भरोसे भी नही चल पाता हूँ...
कभी हर दिल में घर बनाने की कोशिश करता हूँ,
तो कभी बेदखल हों जाता हूँ खुद से ही...
पर सोच के मुस्कुराता हूँ कि
जो वक्त ने राह दिखाई है,ज़िंदगी को
उसकी खबर नही है मुझको,पर
उस राह पर चलना बखूबी जानता हूँ मै...

                                                   - "मन"

18 टिप्‍पणियां:

  1. Bahut khoob. Khud se bedakhal hokar hi har dil men jagah milti hai. badhe chalo!

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    1. :)
      जब खुद से ही बेदखल हों जायेंगे..तब हम खुद से मिलेंगे तो फिर क्या ?

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  2. बहुत ही बढ़ियाँ गहन भाव रचना...
    जिन्दगी के साथ मुस्कुराते रहिये,
    शुभकामनाएँ..
    :-)

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    1. आभार..:)
      हर मुमकिन कोशिश है,ज़िंदगी के साथ मुस्कुराने की..!

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  3. सुन्दर काव्य।
    मेरी नयी पोस्ट "10 रुपये के नोट नहीं , अब 10 रुपये के सिक्के" को भी एक बार अवश्य पढ़े ।
    मेरा ब्लॉग पता है :- harshprachar.blogspot.com

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  4. वाह ... बेहतरीन प्रस्‍तुति

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  5. बहुत ही लाजवाब ढंग से लिखी गयी एक उम्दा कविता ...

    आपकी इस कविता के अंतिम चरण में जो बदलाव आया वो बेहद पसंद आया.

    मेरी नयी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://rohitasghorela.blogspot.com/2012/11/3.html

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  6. मंटू जी बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति ,सुंदर

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  7. उम्दा....... बेहतरीन प्रस्‍तुति

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  8. बस यूं ही चलते रहिए ... सुंदर अभिव्यक्ति

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  9. सोच के देखो ज़रा , वक्त ने जो राह दिखाई है जिंदगी को उसकी खबर अगर हमें पहले से ही होने लगे तो जिंदगी में तो कोई एक्साइटमेंट ही नहीं बचा | जरूरी यही है की बस उस राह पर चलते रहो , कदम दर कदम , बेहतर से बेहतर |

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  10. जो जिंदगी के रास्तों पे चलना सीख गया ... उसने आधा सफर तो पूरा कर लिया ...
    भापूर्ण प्रस्तुति ...

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