25 जून 2020

ज़रूरत बनाम ज़िम्मेदारी

पिता की ज़रूरत में
टॉर्च, रेडियो, एक लाठी
एक साईकल, कोठारी गंजी
सूती कमीज़, पैंट, एक सफेद गमछा
सुबह की चाय, दो वक़्त का खाना
सात वक़्त का तम्बाकू
और कभी-कभी
एक खिल्ली मीठा पान ही शामिल रहा।

ज़रूरत से कहीं अधिक
पिता के लिए सबकुछ ज़िम्मेदारी ही रहा-
उनकी माँ से लेकर उनके बच्चों की माँ तक
घर की टूटी दीवार से लेकर बच्चों की नौकरी तक
दुआर पर गाय से लेकर धान उगाने वाले खेत तक
जब-जब बीमार हुए पिता
उन्हें डागदर बाबू की दवाई ने कम
ज़िम्मेदारी ने अधिक बार ठीक किया।

ज़रूरत कम होने और
ज़िम्मेदारी बढ़ने के साथ ही
पिता जैसे-जैसे तब्दील होते गए सूरज में,
माँ पृथ्वी बन काटने लगी उनका चक्कर।
पिता तुनकमिजाज होते गए
देवताओं के पास माँ की अर्ज़ी में बढ़ोतरी होती गई।

बुरी नज़र से बचाने और सलामती की ख़ातिर
आरती गाती हुई माँ की आवाज़ का
घण्टी की आवाज़ पर हावी होने से लेकर
घण्टी की आवाज़ का माँ की आवाज़ पर हावी होने तक
पिता हमारी ज़रूरत से खारिज़ होकर ज़िम्मेदारी बन गए।
माँ पूजाघर में ही विलुप्त हो गई एक दिन
और
पिता एक दिन अचानक घर आना भूल गए।

ज़रूरतें तुली हुई हैं कि
माँ जैसी चीज़ें विलुप्त हो जाए
और ज़िम्मेदारियाँ अमादा हैं कि
पिता जैसी चीज़ें घर का रास्ता भूल जाए।

8 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २६ जून २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  2. ज़िम्मेदारियों का वहन करते पिता की ज़िंदगी के यथार्थ का स्पर्श करती यह कविता अपनी मार्मिकता से पाठकों को निःशब्द कर देती है।

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  3. भ्रमित हो भटक गई रचना, पिता बोलता नहीं है पर अपनी जिम्मेदारियों से कभी मुंह नहीं मोड़ता

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    1. दुनियादारी मजबूर कर देती है!

      रचना को पढ़ने-समझने के लिए धन्यवाद :)

      हटाएं

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