सर्दी के उतरते और गर्मी के चढ़ते मौसम में गेहूँ से अटे पड़े खेतों के किसी एक पगडंडी पर ख़ुद को सँभालते हुए डूबते सूरज को देखना..देर तक...ईंट की चिमनी से निकलता काला धुआं,सूरज को मुंह चिढ़ाते पूरब की ओर जाते हुए जिधर से बच्चों के खेलने की आवाजें आ रही हैं...
कल होली थी..हाँ ! होली, जिसमें बस बनावटी रंग शेष रह गया है।बचपन की होली अब नहीं है,धीरे-धीरे सब ख़त्म हो रहा है।शहर में तो बस एक छुट्टी का दिन है और गाँव में भी कहने लायक कुछ बचा नहीं।सारी परम्पराए और मायने अब केवल यादों में है।हमसब नहीं,जिम्मेदार वक़्त है शायद!
ढ़ोल-ढफली-झाल-मंजीरे की जगह अब कानफोड़ू और बेहूदगी की आखिरी हद तक की भोजपुरी गीतों ने ले लिया है।नशा करने की लत अपने चरम सीमा पर..पर 'बुरा न मानो होली है' सब जायज़...छोटे बच्चे को सबकुछ दीखता है? वक़्त बताएगा...
अबीर और रंग से ढकी हुई,शिकायतें सबके चेहरे पर दर्ज़ है।एक-दूसरे को सब पढ़ सकते हैं।पूछना कोई नहीं चाहता।गाँव के बड़े-बुजुर्ग जो उम्र की आखिरी दहलीज़ पर हैं,माथे पर अबीर का बोझ लिये कुर्सी पर बैठे उबड़-खाबड़ सड़क पर आते-जाते हर एक को पढ़ रहे हैं...पिछले साल की तरह इस साल भी,हाथ कुछ नहीं लगता मलाल के...
जो बाहर कमाने गये हैं वो अब होली पर गाँव नहीं आते,उनके घर-परिवार के लिए पैसे आ जाते हैं...बाज़ार जाइए और होली खरीद लाइए !
किस तरफ़ रहना पसंद करेंगे? पीछे छूट गए समय की तरफ़,जिसपर धूल की कईँ परत बैठती जा रही है सुकून से या कानफोड़ू भोजपुरी गीतों की तरफ़ ? (दोनों जायज़ है)
एक और रास्ता(?) है... मेरी तरफ़,हर दिन की तरह कल का दिन भी वैसे ही डायरी में दर्ज़ होते हुए गुजरा-सुबह की चाय में चीनी कम और चायपत्ती ज्यादा,अदरक और काली मिर्च स्वादानुसार,माँ के हाथ का खाना,मोबाइल के छोटे स्पीकर से धीमी आवाज़ में गाने सुनना,किसी कहानी के किरदार को ज़ेहन में उतारते हुए सो जाना,शाम को गाँव से दूर चिमनी के नीचे से डूबते सूरज को देखना..देर तक...
- मन