कबीर कहते हैं- सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय। सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय।। अर्थात पूरी पृथ्वी को कागज, सभी जंगल को कलम, सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते।
एक माँ, जो स्कूल से बेटे की शिकायत भरे ख़त को बदल के पढ़ देती हैं कि आपका बेटा बहुत ही क़ाबिल है, इसे घर पर ही रखिए। वहीं बेटा जब ख़त की असलियत तक पहुँचता है तो दंग रह जाता ये पढ़कर कि स्कूल वाले उसे मंदबुद्धि मानते और स्कूल के लायक नहीं समझते... आगे वहीं बेटा थॉमस एल्वा एडीसन बनता है जिनके नाम 1093 खोजों के पेटेंट दर्ज़ है।
एक पिता जो अपने बेटे के लिए स्कूल को ख़त लिख के कहता है- "मेरे बेटे को दिखा सको तो दिखाना, किताबों में छिपा खज़ाना, उसे ये बताना कि बुरे आदमी के पास भी अच्छा हृदय होता है। आप उसे बताना मत भूलियेगा कि उदासी को किस तरह प्रसन्नता में बदला जा सकता है और उसे ये भी बताना कि कभी रोने का मन करे तो रोने में शर्म बिल्कुल ना करे।" उस पिता का नाम अब्राहम लिंकन है।
'पिता के पत्र पुत्री के नाम' 1928 से अगले 3 साल तक जवाहर लाल नेहरू अपनी 11-12 साल की बेटी इंदिरा को अलग-अलग जेलों से ख़त लिखते रहें और नन्हीं सी जान को दुनिया के बारे में बड़ी ही बारीक़ी से हर पहलू को छूते हुए, दुनियादारी से रूबरू कराते रहें।
मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'बड़े भाई साहब' से वो सीखा जा सकता है जो कोई महाग्रंथ नहीं सीखा सकता कभी!
किशोर दा, उनसे सीखा जा सकता है- हर हाल में जीवन का आनंद लेना। कोई जब उनके लिए ये कहता- "एकदम बच्चों जैसे थे किशोर। छोटी छोटी बातों से बहुत ख़ुश हो जाते थे। कभी कभी बारिश को देख इतना ख़ुश हो जाते मानो पहली बार देख रहे हों।" और ये भी कि "महान लोग समय के साथ-साथ और महान होते जाते हैं, क्योंकि आप यह अनुभव करते हैं कि वो कैसे काम करते हैं। यही चीज़ किशोर कुमार के साथ भी हुई।"
शिवमंगल सिंह सुमन जी की कविता 'वरदान माँगूँगा नहीं' बहुतों में से एक मेरे लिए भी जीवन के समंदर में भटक चुके जहाज़ के लिए प्रकाश स्तंभ साबित हुई- "क्या हार में क्या जीत में किंचित नहीं भयभीत मैं, संघर्ष पथ पर जो मिले, यह भी सही वह भी सही.. वरदान माँगूँगा नहीं।"
परिस्थितियाँ हमें उन अनुभवों से रूबरू कराती हैं जिन तक पहुँचने में हमें कईं साल लग जाए.. बिहार में जन्म लेने के बाद बचपन के कुछ ही हिस्से जी पाया था कि नाना जी का फ़रमान ज़ारी हो गया- जाओ राजस्थान जाओ..यहाँ रहे तो बिगड़(?) जाओगे! और मैं चला गया राजस्थान(नसीराबाद, अजमेर) 12 साल की उम्र में, जहाँ मुझे संजय अंकल जी जैसे शख़्स मिले जो बिहार के ही बेगूसराय जिले से हैं. उनकी बातें कभी सिगरेट पीते हुए मेरे मन में दर्ज़ की जातीं तो कभी तंबाकू रगड़ते हुए कहते तो कभी टेस्ट मैच देखते हुए कभी चेस खेलते हुए. एक बात जो मेरे मन में टँगी हैं उनकी- "उम्मीद नहीं रखनी चाहिए किसी से भी, दुःख की वज़ह है ये." आज मैं जिस किसी भी स्तर पर शतरंज खेल लेता हूँ इसके पीछे संजय अंकल जी ही हैं. उस वक़्त वो कभी कभी ज़बरदस्ती शतरंज खेलने के लिए कहते क्योंकि उन्हें कोई और खेलने लिए मिलता नहीं था जैसे आज मुझे नहीं मिलता तब समझ आता है कि इस वक़्त मुझे भी कोई मन्टू मिले तो मैं भी उसके साथ ज़बरदस्ती खेलूँगा... हाहाहा...
श्रीराम जी गुरु जी, शुरुआत में आदर्श विद्या मंदिर के स्कूल में दाख़िले की वज़ह से आप जानते भी होंगे कि इन स्कूलों में सर को गुरु जी और मैडम को दीदी कहना होता है. यहाँ तक कि अपने से बड़े सहपाठी को भैया और दीदी कहना अनिवार्य होता है। कुछ भी करने से पहले संस्कृत का एक एक मंत्र तय है उस काम के लिए। श्रीराम जी गुरु जी, उनको लेकर ये लिखते हुए भावुक हो रहा हूँ। इतना जानिए कि "किसी पर हर तरीक़े से जब भरोसा किया जाता हैं ना तब वो शख़्स क्या कुछ करने के क़ाबिल नहीं बन जाता।" बस ऐसा ही कुछ भरोसा श्रीराम जी गुरु जी का मुझपर था!
भय का सकारात्मक पहलू क्या और किस हद तक हो सकता है ये नाना जी से सीखा और अभी भी सीख रहा हूँ।
नानी, जो मेरी माँ से भी पहले माँ है, उनके होने से ही मैं हूँ... और क्या कहूँ ?
कुछ दोस्त, नहीं नहीं कुछ तो नहीं कहा जा सकता, बहुत सारे हैं.. जिनमें लड़के लड़कियों की बराबर अनुपात तो नहीं पर आस पास के अनुपात में ज़रूर है और दोस्तों की अहमियत के बारे में क्या लिखना ? दोस्तों का जीवन में होना ही नेमत है, इनायतें हैं :)
छोटा भाई, रवि, जिसके लिए मैं कहता भी हूँ और सोचता भी हूँ कि इसे बड़ा होना चाहिए था। पर कोई नहीं! रवि, सिनेमा से जुड़े विषयों में ख़ुद का भविष्य देखता है, देख रहा है। तो स्वतः ही एक ऐसी ज़िम्मेदारी(?) मेरे कंधे पर आ जाती है कि रवि सिनेमा से जुड़ा हुआ कोई भी सवाल कभी भी पूछ ले तो मैं बताने के क़ाबिल रहूँ, ज़्यादातर बारी कामयाब रहता हूँ, ऐसा मेरा मानना है.. हाहाहा
दीदी, मधु दीदी.. जिनके रेडियो पर विविध भारती सुनने या कोई कोई फ़िल्म को रेडियो पर सुनने की आदत ने, मुझ अबोध बालक(?) के दिलोदिमाग पर ऐसी लकीरें खींची कि ताउम्र गीत-संगीत-सिनेमा से मैं ख़ुद को अलग रखने की सोच भी नहीं सकता.. और सोचना है भी नहीं।
छोटी बहनें- सब्बू, सोनी, स्नेहा। इनका होना जैसे बचपन के उन पलों को फ़िर से जीने जैसा है जिन पलों को उस वक़्त में शायद परिस्थितियों ने चाहा नहीं था..या जो कुछ भी।
माँ-पापा ❤
सोशल मीडिया के हमराही- टेक्नोलॉजी दोधारी तलवार है, आप इसका इस्तेमाल कर प्लूटो तक जा सकते हैं और इसी का इस्तेमाल कर गर्त(?) में आसानी से जा सकते हैं, आपके हाथ में हैं। चुनाव का सारा मामला हमारे हाथ में ही होता है, कभी कभार वो चुनाव किसी दूसरे के मन के रास्ते से हमतक आने लगता है पर रहता चुनाव अपना ही। जो कोई भी शख़्स सोशल मीडिया के दरवाज़े से मेरी ज़िंदगी(?) में दाख़िल हुए या जिनको मैंने कहा आगे होके कि आप आ जाइए, उन सबका तहेदिल से शुक्रिया... कईयों को उनके नाम की किताबें दे चुका हूँ, कईं ऐसे हैं जो मिलेंगे तो किताबें दे दूँगा 💃
साहित्य- इसके दायरे में मैं सबकुछ को मानता हूँ, सबकुछ। सआदत हसन मंटो का लिखा भी और छोटे छोटे बच्चों का खिलखिला के हँसना भी। माँ का ये कहना भी कि "दही-भूजा खा ले।" साहित्य न होता तो जीवन क्या होता... डूबोया मुझको होने ने, कुछ न होता तो ख़ुदा होता _/\_
...और आख़िर में रोजर विलियम्स की कही बात- "दुनिया का सबसे बड़ा अपराध है अपनी क्षमता का विकास न कर पाना।"
...और भी बहुत जने, जिनसे सीखने को बहुत कुछ मिला और बहुत कुछ मिलना अभी बाक़ी है, लेकिन उन्हें गुरु(?) का दर्ज़ा देना अभी जल्दबाज़ी होगी।
और इस बात की गाँठ- "..तेरे अंदर एक समंदर, क्यों ढूँढे तब्के-तब्के"
कबीर के ही दोहे से ख़त्म करते हैं इसे- "मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर। अब देवे को क्या रहा, यो कथि कहहिं कबीर।। अर्थात यदि अपना मन तूने (गुरु) किसी को दे दिया तो जानो सब दे दिया, क्योंकि मन के साथ ही शरीर है, वह अपने आप समर्पित हो गया। अब देने को रहा ही क्या है।
:)
गुनगुना लीजिए :)
आते-जाते, ख़ूबसूरत, आवारा सड़कों पे
कभी-कभी इत्तेफ़ाक़ से...
आते-जाते, खूबसूरत, आवारा सड़कों पे
कभी-कभी इत्तफ़ाक़ से कितने अनजान लोग मिल जाते हैं
उनमें से कुछ लोग भूल जाते हैं, कुछ याद रह जाते हैं
उनमें से कुछ लोग भूल जाते हैं, कुछ याद रह जाते हैं...
मन :)