हम प्रेम करते हैं और भूल जाते हैं जबकि प्रेम भूलने योग्य शय नहीं है। प्रेम की जो भावना हममें उमड़ती है उस भावना को हम कईं परतों में दबाते चले जाते हैं, दिक्कत वही शुरू होती है। हम प्रेम में हमेशा होते ही हैं इसलिए साँस ले रहे हैं। इस दौरान जिन लोगों, जिन विचारों से प्रेम के लिए भावना झलकने लगती है तब हमारी ही वज़ह से चीजें व्हाइट और ब्लैक में न रह के ग्रे शेड में आती जाती हैं ...और फिर 😑
बहुत दफ़े मनुष्य अपने नुकसान, अपने दुःख के लिए नियति ख़ुद ही तय करता है। निर्मल वर्मा अपनी साहित्यिक रचना में न लिखकर अपनी डायरी में दर्ज़ करते हैं कि जब तक धरती पर मनुष्य है ईश्वर यहाँ आने की जोख़िम नहीं उठाएगा।
प्रेम में जिया हुआ पल अरसे बाद अचानक आपके जहन में परिस्थितियाँ पाकर उभरती ही हैं। फ़िर मसला अनुभूति को लेकर है, व्यक्ति विशेष बहुत पीछे छूट चुका होता है। यही होना भी चाहिए। प्रेम अनुभूति से ही होनी चाहिए, व्यक्ति विशेष से तो बिल्कुल नहीं। इतने कम समय के जीवन में आप कुछ ही लोगों के इर्द-गिर्द जीवन को समेटने का जोख़िम क्यों लेंगे ? बताइए ?
और ये भी है कि हम मनुष्यों ने ऐसे कारनामे तो किए ही हैं कि निर्मल वर्मा जैसा इंसान ईश्वर को धरती पर आने से अगाह कर रहा है।
पिछले दिनों लगभग मेरे जीवन के सबसे व्यस्त दिनों में गुजरा है फिर भी मेरे से गाने और फ़िल्मों का साथ नहीं छूटा तो नहीं छूटा। हु एम आई (Who Am I) फ़िल्म आई है। इसका ट्रेलर देख के ही लगा था कि इस फ़िल्म को देखा जाएगा, देखा कम महसूस ज्यादा किया जाएगा। अभी फ़िल्म पूरी नहीं देख पाया हूँ, शायद अब 2024 में ही ख़त्म कर पाऊँ। फ़िल्म में एक जगह नायक अपनी मकान मालकिन की बेटी (दोनों साथ पढ़ते हैं) से कहता है कि अद्वैत दर्शन में बताया गया कि हम सब मनुष्य एक ही आत्मा से बने हुए हैं, कोई भी किसी से अलग नहीं है (अद्वैत मतलब- कोई दूसरा नहीं, कोई अलग नहीं *शंकराचार्य*) लेकिन गुज़रते समय के साथ हमारे बीच मटेरिअलिस्टिक इल्लुशन ने हमें एक दूसरे को पहचानने से कोषों दूर कर दिया है।
हम सब एक ही है। छोटी सी धरती पर हम ख़ुद ही अलग-अलग टाइम जोन में ख़ुद से ही मिल रहे होते हैं। कोई-कोई इतना क़ाबिल हो जाता है कि सामने वाले में ख़ुद को पहचान जाता है, कोई-कोई भटकता है तो, ये भी है कि कोई इतना माथापच्ची नहीं करता है बस ऋण लेकर ख़ूब घी पीता है, सीधी बात। (चार्वाक दर्शन)
ख़ैर... जो भी हो। हम लोग श्रापित होकर धरती पर आएं हों या किसी ईश्वर के सपने का हिस्सा हो या जो भी हो.. अब है तो है, धरती झेले हमें.. धरती ने भी किसी और गैलेक्सी में कुछ ऐसा कांड किया होगा कि मनुष्य इसके पल्ले पड़े, है ना ? है ना ?
कम से कम हम मनुष्य खलील जिब्रान को पढ़ने(?) की हिम्मत कर ही सकते हैं, उनकी ये छोटी सी कहानी पढ़िए-
एक स्त्री ने एक पुरुष से कहा- "मैं तुम्हें प्यार करती हूँ।"
पुरुष ने कहा, "तुम्हारा प्यार पाना मेरा सौभाग्य है।"
स्त्री ने कहा, "क्या तुम मुझे प्यार नहीं करते?"
पुरुष ने टकटकी लगाकर उसे देखा, कहा कुछ नहीं।
तब स्त्री जोर से चीखी, "मुझे नफरत है तुमसे।"
पुरुष ने कहा, "तुम्हारी नफरत पाना भी मेरा सौभाग्य है।"
कभी-कभी सोचता हूँ कि
यशपाल किस वाकये से गुज़रकर लिखे होंगे कि पुरुष स्त्री को चाहने लगे, यह भी स्त्री के लिए विपदा है.
ख़त्म कुछ भी होता नहीं है, खलील जिब्रान की कही एक बात से ही ख़त्म किया जाए इस ब्लॉग पोस्ट को-
प्रेम का संकेत मिलते ही उसका अनुगामी बन जाओ हालाँकि उसके रास्ते कठिन और दुर्गम हैं और जब उसकी बाँहें तुम्हें घेर ले, समर्पण कर दो, हालाँकि उसके पंखों में छिपी तलवार तुम्हें लहूलुहान कर सकती है, फ़िर भी, ..और जब वह (प्रेम) शब्दों में प्रकट हो, विश्वास रखो।
😊