कुछ दिन पहले जब मै मंदिर से होके आ रहा था तब रास्ते में मुझे एक करीब 7-8 साल का बच्चा मिला |देखकर और कहने को तो वो एक बच्चा ही था पर इतनी सी उम्र में उसकी समझ और बात करने का सलीका...
बस मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया |अपने खुद के,सच्चे शब्दों के जरिए उसने अपनी कुछ दिनों की जिंदगी को मेरे सामने रखा...और मै जानकर बस स्तब्ध हों गया था...उसकी मासूमियत से...उसकी सच्चाई से...उसकी चहरे की मुस्कान से...उसके अपनों के प्रति प्यार से...स्तब्ध हों गया गया था,देखकर कि...उसकी जिंदगी ने जिस राह को पकड़ी है वह उसे कहाँ लेकर जाएगी? "बच्चे देश के भविष्य होते हैं" पर ऐसा भविष्य किसे चाहिए??? और ना जाने कितनों की यही कहानी होगी....जो अपने टूटे-बिखरे,आधे-अधूरे शब्दों का सहारा लेकर अपनी पूरी दास्ताँ बयां करते होंगे...कुछ की सुनी जाती होगी और बहुतों की नही...
"भईया,आप थोड़ी दूर तक मेरे साथ चल सकते हों क्या...मेरा घर यहीं पास में ही है...रात हों गई है...और मै अभी बच्चा हूँ ना...सो डर लग रहा है"
"हाँ क्यूँ नही" (पर सहसा मेरा दिमाग,अखबार के उस खबर पर गया जिसमें यह था कि आजकल छोटे बच्चे, किसी को भी अपने घर तक छोड़ने की आग्रह करते हैं फिर उनके घर तक जाने पर...अपहरण करने वाले गिरोह अपने काम को बखूबी अंजाम दे देते हैं)
पर वह खबर,उस छोटे से बच्चे के चेहरे पर की मासूमियत से कुछ फीकी लगी...सो मै उसके साथ चलने लगा... |हाफ़ पैन्ट और हाफ़ टी-शर्ट पहने...हाथ में एक लकड़ी घुमाता हुआ...वह आगे-आगे और मै उसके पीछे...वह बार-बार मुड़कर पीछे देखता कि मै उसके साथ हूँ कि नही...जितनी बार वो आगे नही देखता उससे कई बार वह पीछे देखता...साथ ही साथ वह आस-पास के घर के अंदर भी देखता हुआ मस्ती में चले जा रहा था...चहरे पर मुस्कान लिए और मुझे अपनी तरफ रिझाते हुए |
और मै हर दो मिनट चलने के बाद उससे पूछ बैठता कि-
"कहाँ है तुम्हारा घर...?"
"बस वो वाला घर है ना...वो वाला...हाँ...उसी के आगे वाला...मेरा घर है..."
फिर मैंने उससे पूछा-
"तुम्हारा नाम क्या है?"
"सन्नू...पापा ने रखा है...और स्कूल के लिए मोहन"
"तुम कौन सी क्लास में पढ़ते हों ?"
"मै नही पढ़ता-वढता...पढ़ने का तो मन करता है...मेरे ताऊ जी का लड़का बिसू रोज पढ़ने जाता है...पर मेरी अम्मा मुझे पढ़ने के लिए भेजती ही नही है..."
"और तुम्हारे पापा?"
"वो तो है नही ना...वे मर गए...ऊपर चले गए...वे कमाने जाते थे...जब मै और छोटा था...वे मुझे पढ़ा-लिखा के बड़ा बनाना चाहते थे...उन्होंने कुछ दिन मुझे,घर के पीछे वाले सरकारी स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा भी था...वे मेरे लिए किताब भी लाए थे बाज़ार से...पेंसिल भी"
"तुम्हारी अम्मा तुम्हें क्यूँ नही पढ़ाना चाहती है ?"
"वो सुबह-सुबह काम करने जाती है फिर शाम को आती है...फिर छुटकी...मेरी छोटी बहन,वो घर पर अकेली रहती है ना...रोती रहती है...अभी छोटी है ना इसलिए...इसलिए अम्मा मुझे घर पर ही उसे चुप कराने के लिए रखती है...मै उसको दिनभर खेल खिलाता रहता हूँ...वो भी खूब हँसती है...आज तो वो खाट पर से गिर भी गई थी...फिर रोने लगी...वो अपने आप गिरी थी...और अम्मा ने मुझे मारा...फिर वो हँसने लगी..फिर उसे देखकर मै भी रोते-रोते हँसने लगा..."
"तुम अम्मा को क्यूँ नही कहते हों कि मै भी पढ़ना चाहता हूँ"
"अम्मा कहती है पढ़-लिख के क्या करेगा...और वैसे भी अम्मा के पास इतने पैसे नही है कि वो कॉपी-किताब खरीद सकें...अम्मा कहती है कि...छुटकी थोड़ी बड़ी हों जाए तो...मुझे भी वो काम पर लेके जायेगी...और फिर मै भी दो पैसे कमाने लग जाऊँगा...मंहगाई भी बहुत है ना"
मैंने हँसते हुए पूछा कि "तुम भी मंहगाई का मतलब जानते हों ?"
"हाँ...अम्मा कहती है कि ये मंहगाई अब जान लेके ही छोड़ेगी...वो कहती है कि और पैसे कमाने पड़ेंगे,तभी जाके वो मुझे और छुटकी को पाल-पोस के बड़ा कर सकती है...ये महंगाई बड़ी खराब चीज है...है ना ?"
उसने मुझे निशब्द कर दिए थे...मै चाहकर भी कुछ भी नही बोल सका |
"क्या तुम्हें पढ़ना अच्छा नही लगता?"
"लगता है...पर पढ़ने-लिखने के पहले ही अब पैसे कमाने लगूँगा...तो पढ़ाई किस काम की...पढ़ने के बाद भी पैसा ही कमाऊँगा...तो अभी से कमाने लगूँगा तो अम्मा को भी कम काम करना पड़ेगा...
लो आ गया मेरा घर..आप अब चल जाओ...मै यहाँ से चला जाऊँगा"
और वह फिर अपने घर के तरफ उछलता-कूदता चला जाता है....और मुझे छोड़ जाता है निरुतर...निशब्द...के गहरे खाई में...उसने जो कुछ भी मुझसे कहा...सबकुछ वह हँसी-मुस्कुराहट के साथ घर के बाहर ही छोड़ जाता है...और फिर मैं उन्हें अपने ऊपर लादकर अपनी घर के तरफ चलने लगता हूँ...आगे की तरफ बढ़ता जाता हूँ...पता ही नही चला,पलकों के कोर गीले होने लगते हैं...चारो तरफ सन्नाटा...मेरा मन कहीं और भटक रहा होता है...दिमाग कही और...उसके कहे एक-एक शब्द मेरे सामने तैरते हुए नज़र आते हैं...और बस कहने के लिए कुछ बचता ही नही है |
सिलवटों में पड़ी दबकर...
कहीं जख्म तो कहीं खुशी थामकर...
हर चेहरे का सहारा बनकर,
कुछ नए रंग तो कुछ पुराने ही सही...
हर हाल में जीना सिखा देती है जिंदगी...!
- "मन"