31 जनवरी 2024

मैं फिल्म हूँ

डंकी का ट्रेलर देख के ट्विटर पर ये लिखा था-

सबकुछ कहने के तरीके में है "तुम बात करते हुए बीच में रुक के हँसती हो तो अच्छा लगता है" की बजाय कहा जाए "तुम बातों के बीच में जो हँसती हो ना तो उस पल जीवन से बेपनाह मोहब्बत होने लगती है।" दोनों एक ही बात है, कहन में अंतर है। @RajkumarHirani की यही ख़ूबी उन्हें अलग बनाती है…

3 इडियट्स नार्मल कहानी, जिससे सभी इंजीनियरिंग और वो समाज जो सर्टिफिकेट इशू करता है, वाले गुजरे हैं, केवल कहन के तरीके में बदलाव से फिल्म भुलाई न जाने वाली सूची में जुड़ गयी। #Dunki के ट्रेलर से अंदाज लग रहा कि कहानी नार्मल ही है, कहन के तरीके इसे भी अलग मुक़ाम हासिल करा दे शायद !

2018 में दिल्ली जब रहने आया तो थिएटर में पहली फ़िल्म देखी 'मुल्क़' दूसरी फ़िल्म थी जीरो, फर्स्ट डे फर्स्ट शो। जीरो मुझे अच्छी लगी। स्टार कास्ट की वज़ह से नहीं बल्कि 'रांझणा' वाले डायरेक्टर @aanandlrai की वज़ह से। शायद रांझणा वाली एक्सपेक्टेशन 'जीरो' के साथ भी जुड़ गई हो.

जीरो भी आनन्द एल राय की वज़ह से देखने गया था, #Dunki देखने का मोह भी राजकुमार हिरानी की वज़ह से ही है। एक अच्छी(?) और लंबे समय तक सराही जाने वाली फ़िल्म के लिए डायरेक्टर ही ड्राइवर सीट पर बैठा होता है

इस बात की तवज्जो इंडिया से बाहर की फ़िल्मों को बख़ूबी मिलता है मगर यहां सुपर स्टार का जो लेवल चस्पा है उसका क्या ही कहा जा सकता है। सिनेमा देखने वालों की समझ पर शंका करके बॉलीवुड का जो हश्र होना है हुआ ही है आगे भी होगा.




हाँ, तो कहानी कहने के तरीके... कहानियाँ सुनाना, सुनना, बनाना या उसमें भागीदारी करना, ये कला कम विज्ञान ज्यादा है। मुझे लगता है कि एक लेवल पर जाकर तो ये विशुद्ध विज्ञान ही है।


हम सब अपनी अव्यवस्थित जीवन के सारे पहलू/उलझन को किसी कहानी में फिट करके एक पैटर्न बनाते हैं फिर उससे हल मिले ना मिले, बेफ़िक्र रहने का ख़ूब सारा कच्चा माल मिल जाता है और फिर ये छोटी सी ज़िन्दगी गुजर जाती है जल्दी-जल्दी... शायद !


शायद ही कुछ.. हाहा... :)

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तो 2024 की थिएटर में देखी जाने वाली पहली फिल्म बनी डंकी। मुझे अच्छी लगी। यही मैटर करता भी है। फिल्मी पर्दे पर प्रेम कहानियों को देखना और उससे ख़ुद का जुड़ाव स्थापित करना उस थ्योरी को मजबूत करता है कि हम पिछले किसी जन्म में क्या थे और क्या अधूरा रह गया था जिसको पूरा करने के लिए इस जन्म में भटक रहे हैं। मेरा पिछला जन्म शायद किसी अजीब प्रेम कहानी से कुछ जुड़ा होगा। शायद..


हम यहाँ डंकी मूवी के रिव्यु के लिए नहीं आए हैं। धर्म के समान फिल्म भी एकदम नितांत व्यक्तिगत मसला है। किसी को कौन सी फिल्म अच्छी(?) लग रही और कौन सी नहीं इसके मापदंड समंदर में पानी का जितना कतरा है उतने हो सकते हैं। अपनी पसंद हम रख सकते हैं थोप नहीं सकते। अपनी पसंद थोपने के सारे सीधे/घुमावदार कोशिश हमें उस विशेष कला के प्रति अपने रुझान से धीरे धीरे महरूम करके हमें कमतर मनुष्य बनाने की ओर अग्रसर करती है।


डंकी में एक जगह आप ग़जनी की कल्पना को देखेंगे, एक जगह 3 इडियट्स का रणछोड़ दास दिखेगा तो जीरो का बउवा भी कईं जगह दिखेगा। सबसे बेहतरीन सीन है विक्की कौशल के कैरेक्टर का इंटरवल के पहले कहानी की डिमांड पर मरना और उसके मरने का दृश्य आपके ज़हन में कईं दिन तक टिक जाने वाला है।


आखिरी में तापसी पन्नू के किरदार का टिपिकल शाहरुख़ के सामने जाने वाला सीन भी काबिलेगौर है।


फाइट वाला सीन ज़रूर अटपटा लगता है क्योंकि अचानक से शाहरुख़ में 'पठान' और 'जवान' वाला कैरेक्टर घुस जाता है जिसकी ज़रूरत नहीं थी। इमिग्रेशन टॉपिक के ख़ामियों को और बेहतरी से दिखाया जाना चाहिए था। इत्ती आसानी से अब बॉर्डर टापना मुमकिन नहीं होता।





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मेरी कोशिश हर बार रहती ही है कि जिस शहर भी घूमने जाऊँ, वही के थिएटर में लगी हुई कोई फिल्म ज़रूर देखूँ, ज़्यादातर बारी ये संभव भी हो जाता है। ऐसे में एक ख़ास तरह की याद बनती है जिसे भूलना लगभग नामुमकिन होता है। करके देखिए आप भी अगली बार से :)

जनवरी में 3 फिल्मों से गुजरा। मैंने प्रतीक भाई को डंकी दिखाई थी तो प्रतीक भाई अपनी बारी पर सालार दिखाने वाले थे पर 'हनुमान' दिखाए (डायरेक्टर प्रशांत वर्मा की वज़ह से) और हनुमान फिल्म ऐसी है कि देखना पड़ा मुझे। BGM अगर ठीक नहीं होता तो थिएटर में मेरी नींद बीच-बीच में नहीं ही खुलती, सीधे आख़िरी में ही हनुमान चालीसा के पाठ के समय ही खुलती 🙃







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और जनवरी की आखिरी फिल्म बनारस में मैं अटल हूँ...








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फिल्मों से नाता गहरा है, रगों में हीमोग्लोबिन की उपस्थिति जैसे.. जैसे, बनारस के साथ अस्सी घाट का जुड़ाव जैसे 'तन्हाई' गाने में सोनू निगम की आवाज़।



ख़ैर, जीवन से फिल्म है या फिल्म से जीवन है ? इस सवाल का जवाब न मिलें इस जीवन में यही शुभेच्छा है. 😄



😍


स्वर्गीय जयप्रकाश चौकसे 🙏 का नाम सुने हैं आप कभी ? नहीं ? हमारे साथ(?) चलने में बहुत टाइम लगेगा अभी 🙃, तुम्हें ये नार्मल बात लगेगी परन्तु मेरे लिए ये मेरा पक्का यक़ीन है। हाहाहा...

14 जनवरी 2024

चदरिया झीनी रे झीनी..

उसी दिन लड़के ने चादर बदला और अपने अंदर से एक शख़्स को भी। और रात तक सोते सोते उसने उस नए चादर को वपास पुरवर्ती तहों से तह करके वापस रख भी दिया, पुराने चादर के पास वापस चला गया। नया चादर इसी निमित्त उस सुनहरे दिन की शाम को लड़के की देह पर धारण की गई थी। चादर ने कुछ तो असर किया लड़के पर कि लड़के ने वो काम किया जो शायद वो कभी करने की मन में ला भी नहीं सकता था, उस काम को उसने हक़ीक़त में कर दिया था।

लड़का अपने माँ-बाप का एकलौता और बेहद शर्मिला था। इतना शर्मिला की घर में बहनों का साथ न मिला, अकेले रह गया और बहुत सी बुनियादी बातों से महरूम रहकर जब बड़े होने पर उस विशेष कुऍं में गिरा तो दंग रह गया। ये होता ही है होना ही चाहिए। ऐसे ही शर्मीले बच्चे उद्दंड बच्चों के मसलों के साथ दुनिया को संतुलित करते हैं। उसका शर्मीलापन दुनिया के लिए नेमत है ये वो नहीं जानता, आगे जान जाएगा।

हाँ तो, भटकाव का दौर झेल रहा लड़का एक लड़की के क़रीब पाता है ख़ुद को। लड़की ऐसी कि लड़के ने कोई मंशा पाल के उससे जुड़ा ही नहीं। पहले से तय करके किसी से जुड़ना बहुत ही घातक होता है ये लड़का जान गया था। लड़के की भटकाव वाली जर्नी ने उसे ये बख़ूबी सीखा दिया था कि चीजें अपनी गति से हो तभी टिकतीं हैं। जल्दबाज़ी के कारण बहुत ही जरूरी चीजों से महरूम रहने के बाद आया ये ठहराव वाला गुण ऐसा जादू किया कि ये वर्तमान वाली लड़की पर न चाहते हुए भी असर होने लगा, वे दोनों ही अनजान थे। लड़की नहीं खुलती पहली दफ़ा में, नहीं खुली, कईं प्रयास लड़के के नाकाम होते रहे, लड़की अपनी पिछली दुनिया को इस कदर ढोती रही या उसके साथ चलती रही कि वो लड़के की कोशिश देख पाने में ख़ुद को लाचार पाई, लड़का ये पक्ष जानता था इसलिए टिका भी रहा। तब तक टिका रहा जब तक कि लड़की ने अपने अतीत को पीछे छोड़ न दिया। 

मगर समय के छोटे अंतराल में कुछ ऐसा हुआ कि लड़की के मन से अतीत छूटने लगा और इसका भान ख़ुद लड़की को भी न हुआ। लड़का भांप गया। लड़का शर्मीला होते हुए भी उन कहानियों से गुजरा था जिसके निचोड़ और स्व के अनुभव ने उसे घाट घाट का पानी पिलाने जैसी स्थिति में तो ला ही दिया था।

हाँ, तो चादर का कमाल कहिए या जो भी, लड़के ने चादर ओढा और रात तक बम पटक दिया लड़की के पास। लड़की नार्मल रही, नार्मल रहने का दिखावा की.. पर पर पर मगर मगर किंतु परंतु, लड़की अपने अतीत से छुटकारा पा चुकी थी तो उसे अब ज़रूरत थी इस लड़के की। लड़की को भी किसी लालच वश नहीं जुड़ना था लड़के से, बस अब वो चाहती कि लड़के की दर्ज कराई गई प्रणय निवेदन पर गौर फरमाया जाए। 

तो सबकुछ एक गति से ही चलने वाला था चलता ही पर लड़का लड़का हाहा वो लड़का.. इत्ती आसानी से समझ कैसे आएगा, शर्मीला होने का दिखावा ही उसने बचपन से किया था तो समझ सकते हैं कि बाकी मसलों पर वो किस कदर परिस्तिथियों से जूझकर उसमें से अपना बेस्ट निकाल सकता है। अब बारी लड़के की थी वार करने की। लड़के ने अपना रास्ता अलग किया जो उसने जान बुझकर लड़की के जीवन से कभी जोड़ा भी नहीं था लड़के ने रास्ता अलग कर लिया। लड़के ने ख़ुशी ख़ुशी विदा लिया, लड़की भी ख़ुशी ख़ुशी (?) उसे विदा की। जैसा कि पहले भी अनगिनत बार हुआ है। और रात के सन्नाटे में बहुत तेज़ डेसिबल के साउंड पैदा होने लगता है जिसको केवल वो लड़का-लड़की ही सुन सकते जो इस दौर से गुजरे हैं।

दोनों के रास्ते अलग हुए। लड़का दूसरे शहर में चला गया। लड़की बहुत सारा अतीत को अपने मन के बहुत ही निचले स्तर पर दबाकर ससुराल चली गई। लड़का दूसरे शहर में कमाने लगा और अब सच को मानते हुए अपना शर्मीलापन छोड़ दिया। अब अधिक से अधिक लोगों से जुड़ता गया जीवन आसान हो गयी उसकी। मगर अगले ही साल उसी दिन के 1 साल बाद जिस दिन उसने नए चादर को ओढ़ के लड़की को विदा किया था, उसी दिन को लगभग उसी समय को उसका एक्सीडेंट हो गया। लड़के को हॉस्पिटल ले जाने की भी ज़रूरत नहीं पड़ी। लड़की इन सब से अनजान अपने ससुराल में ख़ुशी ख़ुशी अपने 4 महीने के बेटे के साथ खिलखिलाती है और उसे प्यार से बुलाती है- मोहन

एक लड़का था उसका नाम था मोहन, एक लड़की थी उसका नाम था _______

कहानी उल्टी शुरू हो गयी क्या शायद ? कोई ना.. उल्टी-सीधी सब एक ही तो कहानी है। हाहाहा...

😊

6 जनवरी 2024

गिलहरी, पानी, चाँद, कुछ ग्राम यक़ीन..

गिलहरियों को किस बात की जल्दी रहती है ? भागेंगी एकदम तेज़, छलांग देखिए कितनी सटीकता से लेती हैं। पलटती एकदम तेज़ी से, खाते वक़्त उनका दांत देखिए कितनी तेज़ी से चलाती हैं। 24 घण्टे चौकन्ने (हाँ तू देखता है उन्हें 24 घण्टे, नेता) पिछले दोनों पैरों पर खड़ी होकर कुछ खाती हैं तभी स्थिर रहती हैं तब भी पूंछ हिलती रहेगी.. गिलहरियों को किस बात की जल्दी रहती है या क्या पता उनका तेजी में रहना ही उनके लिए स्थिरता हो, क्या पता ?

कुछ लोग ज्ञान का एक स्तर पाके (ज्ञान नहीं ही है ये दंभ है) गुमान में जीने लगते हैं कि ज्ञान हो गया है फ़िर वो सर्टिफिकेट बाँटने लगते हैं कि उन्हें सामने वाले की सारी मनःस्थिति का पता है। ज्ञान पाने वाले को पता भी नहीं चलेगा कि वो किस दौर से गुज़र रहा, उसे शब्दों में बयान कर देने की तो बहुत ही दूर की बात है। कुछ खास प्रजाति ज्ञान देने के साथ साथ चाहती हैं कि आप एग्री क्यूँ नहीं कर रहे उनके साथ। सहमति न देंगे अपनी तो वो नस काट लेंगे, इस मूड में रहते हैं। ज्ञान देने वाला किस पॉइंट तक ज्ञान दे रहा है और किस पॉइंट से वो अपनी बातों को आप पर थोप रहा है उसे ख़ुद पता नहीं चलता। ज्ञान लेने वाला पहले तो इन लोगों से जल्दी से छुटकारा पाए और नहीं तो कम से कम उकसाए नहीं ऐसे ज्ञानी लोगों को। 

सूर्यदेव भईया से मिला, फ़ास्ट फ़ूड की दुकान चलाते हैं प्रतीक भाई के ही फ्लैट के ऊपर रहते हैं। इस साल ग्रेजुएट हुए हैं। मार्च अप्रैल तक छोटे भाई के हवाले दुकान करके दिल्ली पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए निकलेंगे। सूर्यदेव भाई की दुकान पर ही एक ज्ञानी(?) भईया जो मेरे वहाँ पहुँचने तक सूर्यदेव भाई पर मौखिक अत्याचार कर रहे थे। बात अंबेडकर पर चल रही थी। और महान लोग महान कैसे बनते हैं इसपर। बौद्ध सब धर्मों में श्रेष्ठ क्यों है इसपर और और सबसे मुख्य वहीं कि अपने विचारों या ग़लतफ़हमियों को कैसे सूर्यदेव भाई पर थोपी जाए। ज्ञानी भईया जो सिविल सेवा की तैयारी कर रहे हैं, नो डाउट कि उनका किताबी ज्ञान अच्छा था, मगर मगर सिविल सेवा की तैयारी करने वाला बच्चा/बच्ची सब भूल जाता है कि सिविल सेवा के लिए किताबी ज्ञान की ज़रूरत बहुत बाद में पड़ती है। आप अपने एटिकेट्स अगर सिविल सेवा के अकॉर्डिंग रखेंगे तो ज़रूरी किताबी ज्ञान तक पहुँच भी हो जाएगी। मैं भी सोच रहा हूँ कि सिविल सेवा की तैयारी करूँ फ़िर.. *aham* *aham*

हम गिलहरी पर थे। नहीं नहीं गिलहरी का चैप्टर ख़त्म..

अब मौसम पर आते हैं-

कल एक दोस्त से मौसम प्रेडिक्शन पर बात हो रही थी। वही बताई कि मौसम विभाग के अनुसार 2-3 दिन में पटना में बारिश होगी। अभी 4 बजे भोर में घड़ी के टिक टिक और प्रतीक भाई के बाथरूम की नल से 24 घण्टे पानी टपकने की आवाज़ के बीच बाहर बालकॉनी से पानी गिरने की आवाज़ आयी। अगर कल दोस्त से प्रेडिक्शन की बात न हुई होती तो मुझे देर से पता चलता कि ये बाहर बालकॉनी से किस चीज की आवाज़ आ रही है। ख़ैर, जनवरी में बारिश ? पानी का कुछ तय नहीं है। उसका रास्ता कहीं से भी गुज़र सकता है। नदी नाले झील तालाब समंदर नाक आँख से होते हुए कहीं से भी.. समझ गए ना ? इसलिए पानी बचाइए। पानी को क्यों बचाना है इसके पीछे बहुत ही जबरदस्त साइंस छुपी है जो मुझे पिछले दिनों ही पता चला। अभी इतना जानिए कि चाँद का ग्रैविटेशनल पुल धरती पर लगभग-लगभग सबकुछ डिसाइड कर रहा है, जी हाँ। और और और हमारे शरीर में पानी ही पानी है। (कड़ी मिलाते रहिये)


कल सुबह
दरवाजा खोल के बाहर दूर की बिल्डिंग देखना चाहता हूँ अगर वो साफ दिख रही है यानी कि ओस कम गिरा है और आज फिर कल के जैसे धूप निकलेगी। मुझे रोज़ पटना शहर में जाना होता है तो सुबह सुबह आसमान देखकर काफी हद तक दिन भर के मौसम का अंदाजा लगाया जा सकता है। दरवाजा खोलते ही मेरी नज़रें सामने न जाकर ऊपर गई। ऊपर ही क्यों गयी ? क्योंकि ऊपर चाँद चमक रहा था, थोड़ी देर में उजाला होगा और चाँद धुँधला जाएगा। सुबह के 5:55 के वक़्त सन्नाटे का सोच ही सकते हैं। उस सन्नाटे के बीच ठीक-ठाक ठंड में मैं बालकॉनी में ही 10 मिनट रुक ही गया होऊँगा। चाँद का मोह मुझपर ठंड का असर कम किये जा रहा था। कुछ देर निहारने के बाद सोचा क़ैद कर लेता हूँ यादों के पिटारे में.. फिर उँगली के बीच, फिर एक उँगली से छूकर देखना चाँद को.... हालांकि मैं अवगत हूँ कि ऐसी तस्वीरें लेने वाले लड़के अजीब लगते हैं, होते हैं। और मैं तो अजीब हूँ, इसमें शक नहीं कोई !  पर वहीं जिस सुबह मैं चाँद को कैमरे में क़ैद कर रहा था उस दिन मुझे ये पानी वाला कॉन्सेप्ट और चाँद के ग्रैविटेशनल पुल के बारे क्यों पता चला, उस दिन के पहले क्यों नहीं ? उस दिन के बाद क्यों नहीं ? ताजुब्ब होने वाली चीजों पर कोई रिएक्शन न देना यह इंगित करता है कि आप अपने से बहुत दूर छिटक गएँ हैं, शायद !







हाँ तो आगे-
चाँद को देखते हुए भी ये ख़्याल आ सकता था कि जब चाँद भी साफ दिख रहा है यानी ओस कम है और धूप निकलेगी। पर नहीं चाँद को देखते हुए जो पहला ख़्याल ज़हन में आया वो किसी का चेहरा था। कि अभी इसी वक़्त 5:56 पर वो चेहरा किस हाल में होगा। नैन जगे होंगे या कि जगने के बाद भी रियल्टी से बचने के लिए बंद करके पड़े होंगे। 

जीवन ऐसा ही है। इसमें हम किसी खास समय का कोटा लेकर खास जगह पर रुकने आते हैं। हमें कभी गिलहरी देखना होता है, कभी ज्ञानी भईया/बहिनी को उकसाना होता है, कभी पानी देखना/पीना होता है, कभी बिल्डिंग देखना होता है कभी चाँद देखना होता है कभी कोई चेहरा देखना होता है, कभी-कभी कुछ नहीं देखना होता। इन सब कामों में कुछ न कुछ काम(?) का ही हो रहा होता है। पता इसका हमें आगे जाकर पीछे देखने पर चलता है। है न.

समझे ? नहीं समझे तो आगे ताज्जुब/चकित/आवाक/स्तब्ध/दंग/निःशब्द होने के लिए तैयारी कीजिए अभी से.. आप भी कुऍं में गिरेंगे और अच्छा भी लगेगा। कुछ ग्राम ही सही, यक़ीन कीजिए मेरा !


😊

1 जनवरी 2024

2022,2023 >>> 2024 ❣️

2022, 2023 के पहली जनवरी को ऐसा संयोग बना था कि इन दोनों ही साल गाँव में रहे और माई-पापा जी के साथ नया साल मना और जन्मदिन भी। 


2022

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2023- माई, बेबी (भांजी), मोहित (भांजा), मैं !



इस बार भी ऐसी परिस्थितियां बन ही गयीं थी। इस बार भी 1 जनवरी को गाँव में ही रहता मगर कुछ बदलाव हुए और नहीं जा पाया। तो इस बार यूँ हुआ कि पहली जनवरी दिल्ली+पटना में मन रहा है। दिल्ली में जबरदस्त ठंड बढ़ी है पिछली कुछ दिनों में और ऐसे ही पटना में भी.. अच्छा ही है। मौसम के प्रेडिक्टेबल हो जाने की सहूलियत कईं बार अच्छी याद में बाधा बन जाती है। 







पटना 🥰


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शाम तक दिल्ली में था और अभी 9 बजे तक पटना में हूँ। मेरा पूरा जनवरी ही ऐसे चुटकी बजाते ही गुजरने वाला है। जनवरी तक तो कन्फर्म गाँव ही हूँ, फ़रवरी में वर्ल्ड बुक फेयर का मोह मुझे वापस कहीं दिल्ली ला पटके। 2023 का वर्ल्ड बुक फेयर भी गाँव रहते हुए ही बीत गया था तो इस बार नहीं छोड़ने का सोचा है। कुछ ख़ास लोगों से वर्ल्ड बुक फेयर के बहाने भी मिलना हो सकता है। फ़िर भी भविष्य के गर्त में कुछ ऐसा भी है कि ऊपर लिखी बातों को भूल जाने के लिए मुझे बाध्य भी होना पड़े ख़ुशी-ख़ुशी.. 

जीवन ऐसी ही चलती है। हम मौसम को अब प्रेडिक्ट करने लगे हैं। जीवन को प्रेडिक्ट करने का गुमान हो गया है हम सब को। प्रेडिक्टेबल होना हमें एक रास्ता तो दिखाता है पर साथ में अगाह भी करता है कि भाई तुम अपना देख लेना, ठीक-ठीक वैसे ही कि दिल्ली में कुछ दिन से ठंड थी मगर पटना में 2-3 दिन पहले तक ठंड नहीं थी और आज अभी दिल्ली से भी ज्यादा ठंड पटना में है।

...और मेरा जिला (पूर्वी चंपारण, मोतिहारी) पूरे बिहार में सबसे कम टेम्परेचर का रिकॉर्ड बना रहा है। माई को ठंड लग जाती है, खाना बनाना दुभर हो जाता है उनके लिए। हम सब भाई बहन गाँव में नहीं है। पापा बर्तन धो देने जितनी मदद करते हैं पर खाना बनाने के लिए माई को ही उठना पड़ता है। 10 जनवरी से मैं गाँव ही रहने वाला हूँ तो थोड़ी मदद (चाय बना देता था, अबकी पूरा खाना बनाऊँगा) मेरे से भी हो जाएगी बाकी माई के इर्द गिर्द मैं रहूँगा तो वैसे भी माई को ठंड नहीं लगना है।

आज गूगल फोटोज ने मेरी और माई की साथ की तस्वीरें जुटा लाया। बहुत ही अच्छे लग रहे हैं हम दोनों ही और अब 2024 की दुनिया भी...
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मेरे 2022,2023 का ज्यादातर वक़्त पढ़ने में बीता है और मुझे ख़ुद से ख़ुशी है कि 2022 के पहले जो मेरा ही मेरे प्रति धारणा बनी हुई थी कि मैं एक जगह टिक के देर तक पढ़ नहीं सकता, इस धारणा को बहुत हद तक तोड़ दिया है। इसका परिणाम भी नज़दीक के भविष्य में मिलने वाला है शायद !

2024 में ऐसी परिस्थितियाँ बन रही हैं कि मेरे आगे का आधा से कम का ही बचा हुआ जीवन तय हो जाने वाला है। मगर मगर फ़िर भी.. प्रेडिक्शन करने से मैं रुकूँगा नहीं और जीवन अपने दाँव लगाने से चुकेगा नहीं.. हममें ठनी हुई नहीं है बस साथ चलने के लिए एक दूसरे की ज़रूरत की तरफ़ बढ़ रहे हैं...... शायद !

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सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
वह नियति की नहीं मेरी है ~ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

और और और

कि हर दिशा में होती हैं चार दिशाएँ 
और पाँचवीं की गुंजाइश हरदम बनी रहती है ~ नरेश सक्सेना


😊

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