लगता है मुझे इस दुनिया की समझ होने लगी है। पहले मैं नहीं समझ पाता था कि अचानक कैसे उजाला हो जाता है और शोरगुल की आवाज़ें कानों में आने लगती हैं, फ़िर ख़ूब देर के लिए अँधेरा भी और सबकुछ एकदम शांत-शांत। अब समझ आया है कि दिन-रात इसी को कहते हैं। मेरी माँ जो मुझे जन्म दीं और कुछ दिनों तक मुझे पाल पोस कर बड़ा करके पता नहीं कहीं चली गई फ़िर कभी नहीं लौटी। वो मुझे प्यार करती थीं मगर बड़े भाई को डाँटती थी। तब सुना था कईं दफ़ा कि "बड़े होके तुम शेर बनोगे, शेर जैसे रहा भी करो" मैंने शेर नहीं देखा है शेर के बारे में सुना है बस। बड़ा भईया को शेर क्यों बनाना चाहती थीं माँ ? माँ वापस लौटी क्यों नहीं ? लौटतीं तो पूछता।
मैं बड़े शहर के छमंज़िले इमारत में रहने आ गया हूँ। शेर बनने वाला भाई और बहनें पीछे छूट गईं। वो चाचा भी मेरे जो कम बोलते थे और जो दिन के ज़्यादातर घण्टे गंदे नाले में ही पड़े रहके बिताते थे थे। माँ के चले जाने के बाद वही हमसब के लिए उम्मीद थे। मगर अब पीछे की बातों को याद करने में क्या रखा ? नईं जग़ह मुझे भा गयी है। यहाँ बालकनी है, छत भी और भी जिसकी ऊँचाई जितनी इमारत दूर-दूर तक नहीं दिखती है। माँ को चेहरा भी अब भूलने लगा हूँ। माँ लौटी क्यों नहीं ? ये सवाल मेरा पीछा कभी नहीं छोड़तीं।
हम छठी मंज़िल पर रहते हैं तो बगल की इमारत की पाँच बालकनी हमेशा मेरी नज़रों के सामने ही रहता है, उनकी छतें भी.. छतों पर क्या कुछ होता रहता है.. उसे देख-देख मैं बहुत हद तक बोर हो गया हूँ। पर जो एक बात उस छत पर घट रही होती है उसका ज़िक्र मैं करना चाहूँगा.. शायद जवाब मिल जाए कि मेरी माँ हमतक वापस क्यों नहीं लौटी ? एक काली बिल्ली जो अपने दो छोटे-छोटे बच्चों के साथ उसी बगल वाली इमारत की सीढ़ियों वाले घर के टिन की छत पर अपना बसेरा बसाई हुई है। दोनों बच्चे धारीदार धब्बे अपने बदन पर लिये ख़ूब उछल-कूद मचाते हैं। शुरू शुरू में उन्हें देखकर अच्छा लगता था और मैं अपने उन दिनों को याद करके मुस्कुराता था जब मैं अपने भाई-बहनों के साथ खेला करता था। एक समय के बाद एक दिन मेरे मन में इच्छा जगी कि काश मैं इन दोनों बच्चों को खा जाता। अचानक से आए इस विचार से मैं हैरान हो गया था। मगर ये सब कुछ अभी सोचने के स्तर पर ही था। इसे हक़ीक़त में बदलना नामुमिकन ही था। एक तो उस छत पर जाना मुमकिन नहीं दूसरा उन बच्चों की माँ मुझे उनके आस-पास भटकने भी क्यों देती भला ? उनकी माँ तगड़ी थी और कभी-कभार मुझे ऐसे घूरती जैसे आँखों से ही कह रही हो "ऐ प्लूटो, इधर मत देखा करो, अपने काम से काम रखो और मेरे दिल के टुकड़े के लिए अपने मन में गंदे ख़्याल लाए तो ख़ैर नहीं तुम्हारी, समझ आई बात?" मुझे उसकी आँखें देखकर डर लगता था परंतु वो भी मुझतक नहीं पहुँच सकती थी तो मैं अपने चेहरे पर डर का भाव किसी भी कीमत पर आने नहीं देता था। ये सब कुछ महीनों तक चलता रहा साथ में ये सवाल रह रह कर मेरा पीछा भी करती रही कि मेरी माँ वापस क्यों नहीं लौटी ?
ऐसे ही दिन गुज़रते रहे। उजाला-अँधेरा का सिलसिला चलता रहा, मैं बड़ा होता रहा और वे दोनों बच्चे भी अपना उछलना-कूदना बढ़ा दिए थे। ये ख़्याल कि उन बच्चों के मांस पर केवल मेरा ही हक़ है, बहुत तेज़ी से मेरे ऊपर हावी होती जा रही थी। इमारत और उनकी माँ की बाधा हटाने की तरक़ीब सोचने लगा था मैं। जबकि मुझे मेरे पसंद का खाना भरपेट रोज़ समय से मिल ही जाता था। पर उन दोनों बच्चों के मांस में जो मज़ा होगा वो इधर कहाँ ? नाले में पड़े रहने वाला मेरा चाचा कहता भी था घर की मुर्गी दाल बराबर, अब समझ आई वो बात मेरे।
बारिश का मौसम ख़त्म होने को था और सर्दियां चढ़ने को थी। ऐसे ही एक सुनहरे दिन को मैं सुबह जल्दी ही छत पर उन दोनों बच्चों के बारे में सोचते हुए टहल रहा था। नीचे वाली बालकनी में एक औरत फ़ोन पर बात करते हुए ख़ूब ज़ोर ज़ोर से ठहाके लगा रही थीं जिसकी वज़ह से मेरे सोचने में खलल पड़ रहा था, बावजूद मैं सोचने में मशगूल रहा और अगले ही पल मेरे पैरों तले छत की फर्श खिसक गई ये देखकर कि उन बिल्लियों की माँ अपने मुँह में एक कबूतर दबाए हुए शान से टिन की छत पर मुझे दिखी। तीनों क़रीब आ गए और माँ ने एक आख़िरी झटका कबूतर के गर्दन पर दिया और कबूतर की रही सही कसर निकाल दीं। दोनों बच्चों की आँखों में अज़ीब ख़ुशी मेरे इमारत से ही कोई भी देख सकता था। ये सब देखते हुए आज न चाहते हुए भी डर मेरे चेहरे पर साफ़ झलक रही थी और उन बिल्लियों की माँ कनखियों से मुझे देखती और हल्के से जीभ निकाल कर मुस्कुरा देती। मैं तेज़ी से छत पर से उतरा और कमरे में जाकर टेबल की नीचे बहुत देर तक सहमा, बैठा रहा.. वहीं नींद भी आ गई। दोपहर को जब उठा तो तेज़ भूख से बेहाल था मैं और अब तो मैंने कबूतर के मांस भी देख लिये थे तो भूख की तीव्रता में अच्छी-खासी बढ़ोतरी हो गयी थी। पेट कैसे भी भरा और जैसे तैसे ख़ुद को छत पर ले गया। तीनों जने ये पैर फैलाकर गहरी निद्रा में मगन थे। यहां वहां कबूतर के फर उड़ रहे थे। मुझे कबूतर पर दया आ रही थी जिसके नर्म गुलाबी मांस अब बिल्लियों के पाचन क्रिया में समाहित हो चुका था।
दुनिया इतनी क्रूर भी हो सकती है कि भूख के लिए निर्दोष कबूतर की जान ले ली जाए ? ऐसी बातें मेरे मन में क्यों उठ रही हैं ? जबकि मुझे मौका मिल जाए तो बिल्ली के उन दोनों बच्चों के भी परखचे उड़ा दूँगा। पर यही बात है ना.. मुझे पता है कि बिल्लियों के मांस मेरे नसीब नहीं तो मैं निर्दोष कबूतरों की पैरवी कर सकता हूँ। मानवाधिकार जैसा कुछ अख़बार में पढ़ते देखा है मैंने मालिक को।
ख़ैर, दिन बीतते गएँ और बिल्लियों की माँ हर 2-3 दिन में एक बार एक कबूतर मुंह में बड़े शान से दबाती आती और तीनों बैठ कर मज़े लेकर मुझे बीच-बीच में देखते हुए खाते जाते। मैं अफ़सोस करने के अलावे और घड़ी-घड़ी जीभ निकालने के सिवा कर ही क्या सकता था ? वे शुरुआती के बड़े मायूसी भरे दिन गुज़रे मेरे।
मेरा छत पर जाने का रत्ती भर भी जी नहीं करता है अब मगर, मेरा मालिक मुझे जबरदस्ती छत पर रख आता है। सीढ़ियां चढ़ना तो जान गया हूँ उतरने में मौत आ जाती है। मायूस नज़रों से मरे कबूतरों के लिए मन में उठते दया भाव और बिल्ली के बच्चों के मांस खाने के उठती प्रबल इच्छा के बीच संतुलन बनाना कोई आसान काम नहीं है मेरे लिए.. पर करना पड़ता है। दिल्ली में रहने का सुख ही सबकुछ नहीं होता न.. ये निगोड़ी जीभ पर कौन लगाम लगाये ?
वो सवाल जो मेरा पीछा नहीं छोड़ती थी, कुछ दिनों के लिए ग़ायब हो गयी मगर उस छत के दृश्य जब बार-बार एक जैसे ही होने लगे तब वो सवाल फ़िर जहन में उठ खड़ा हुआ। ये कुछ वैसा ही था कि बादल के आ जाने से हम कुछ पल के लिए सूरज की रोशनी से महरूम रहते हैं। माँ लौटी क्यों नहीं ?? ये सवाल फ़िर हावी हो गया।
ऐसे ही एक दिन बिना मन से छत पर टहल रहा था और पुरजोर कोशिश में था कि सामने की छत पर नज़र न ले जाऊँ। मगर आदतन नज़र गयी और इस बार बिल्लियों की माँ, दो कबूतर अपने मुंह में दबाई टिन की छत पर शान से बैठने के फ़िराक़ में थी। उन दो कबूतरों में एक कबूतर बड़ा और एक बहुत ही छोटा था। शायद माँ-बेटे या माँ-बेटी या ऐसे ही किसी दो कबूतर मार के लाई थी शैतान बिल्ली।
आज ये सब देखते हुए अचानक ही मेरे मन में ख़्याल आया कि बाकी दिनों के कबूतर भी तो किसी के माँ-बाप होंगे। वे अपने बच्चों के लिए खाने की खोज में निकले होंगे और दुर्भाग्यवश इस शैतान बिल्ली के निवाले बन गएँ। इन कबूतरों के बच्चे इनका इंतज़ार करते तो होंगे कि माँ अब आयेंगी और जो कि सच ये है कि उनकी माँ कभी नहीं लौट सकती, वे सब भी मेरे जैसे एक सवाल से कभी पीछा नहीं छुड़ा पाते होंगे कि माँ लौटी क्यों नहीं ?
मेरी माँ भी नहीं लौटी। माँ शेरों की बात करती थी। शेर जैसे बनो। चाचा भी शेरों की कहानियाँ कहते थे। जिस गाँव में मेरी पैदाइश हुई वो जंगलों से घिरा हुआ था। उन जंगलों में शेर होने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता।
..तो आज जवाब मिल गया मुझे कि मेरी माँ वापस लौटी क्यों नहीं ? पर अब मेरे पास जवाब है भी तो क्या ही फ़र्क़ पड़ता है। माँ अगर लौट आई होती तो वो हमारे साथ ही होतीं और मेरा मालिक जब मुझे दिल्ली ले आने के लिए मुझे उठाने जाता तो माँ ऐसा कभी नहीं करने देती और मैं दिल्ली के इस छमंज़िले इमारत पर बिल्लियों की मज़ेदार दावत के किस्से नहीं सुना रहा होता।
अब मन से छत पर जाता हूँ क्योंकि मन न भी हो तो मेरी नहीं चलनी। कबूतरों के लिए दया भाव मेरे अंदर अब असीमित है। कभी-कभी सोचता हूँ कि शाकाहारी हो जाऊँ। जिस छत पर बिल्लियां हैं उधर मैं अब देखता तक नहीं। मुझे ख़ुशी होती है कि मैंने अपने विचारों और जीभ पर नियंत्रण कर लिया है।
मेरे छत की दूसरी तरफ़ वाली छत जिसपर जाना कोई बड़ी बाधा नहीं। उस छत पर कईं महीनों से न पहनने लायक कपड़ों के भरे बोरे रखे हुए हैं। उनमें एक दिन हलचल हुई तो मैंने उसपर ग़ौर करना मुनासिब समझा, वैसे भी छत पर मैं नज़ारा लेने ही जाता हूँ। उन कपड़ों के बोरे में कुछ ज़िंदा सा दिखा जो 5-7 की संख्या में थे जो चीं-चीं-चीं की आवाज़ कर रहे थे। चूहे जैसे दिखे और अचानक ही मेरे मन से अब कबूतरों के लिए दया भाव छूमंतर हो गई। मैं इस जुग्गत में हूँ कि इस छत पर ख़ुद का जाना अब कैसे भी मुमकिन कर पाउँ।
पता है ? "भूख का कोई इलाज़ नहीं" ये सोचते हुए मुझे उस शेर की याद आ रही है जिसने माँ को मुझ तक वापस लौटने नहीं दिया।