यहाँ न तो पूँजीवाद की महिमामंडन की जा रही है न ही उसकी आलोचना, जो जिस रूप में सामने है उसका बखान भर है और पसरती जा रही चीज़ों का फैलाव (चाहे जिस रूप में हो) का महिमामंडन क्यों न की जाए? मैं सोचता हूँ और लायक शख़्सियतों (जैसे कि मेरा छोटा भाई) से इसपर डिस्कशन करता ही हूँ, ये सवाल रखता ही हूँ कि दुनिया कैसे काम करती है ? ये सब कुछ पूर्वनियोजित है या प्रकृति ऐसा ही चाहती है ? जवाब गोल-मटोल तर्कों और उलझनों के रूप में पाता हूँ। दुनिया है, यहीं बहुत है अबतक तो :)
हम अपनी बात करें ? ग्लोबल हो चुकी दुनिया में हम कहाँ हैं ? हमारे ऊपर अभी भी कोई दवाब काम करता है तब हम हेलमेट पहन लेते हैं, सीट बेल्ट लगा लेते हैं, कोई देख रहा होता है तो हम उठकर कचरे के डिब्बे में कचरा डालकर सीना चौड़ा करके उस जगह वायस आ जाते हैं जहाँ पर कचरा पैदा किया था जबकि हो सकता था कि वो कचरा बने ही ना, अगर हम पूंजीवाद के फ़ेरा में पड़ के अपने अंदर इच्छाओं को जगाया न होता तो। होने-जाने को कुछ भी हो सकता है। हाँ, तो हम कहाँ ठहरते हैं बाकी दुनिया के सामने ? वहीं दुनिया जिसमें जर्मनी भी है, जिसको ज़्यादातर लोग याद करते हैं तब हिटलर ही सामने आता है। हिटलर का पक्ष नहीं ले रहा हूँ, ये कह रहा हूँ कि द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात मित्र देशों ने ख़ासकर दी ग्रेट ब्रिटेन ने जर्मनी की राजधानी बर्लिन शहर में एक भी ऐसी इमारत नहीं छोड़ी थी जो ठीक हाल में खड़ी हो। और आज आप जर्मनी को देख लीजिए, वो कहाँ है हम कहाँ है और आगे अभी कहाँ को जा रहे हैं। हिटलर की बात आई तो कह दूँ कि कहीं पढ़ा था किसी आर्टिकल में कि हिटलर तीसरी दुनिया के देशों के लिए ईश्वर से कम नहीं। हिटलर ब्रिटेन के हालात को खस्ताहाल नहीं करता तो अफ्रीकी देशों का तो पता नहीं हम तो क़तई 1947 में आज़ाद नहीं होते। बाकी ये छोड़िए क्या होते क्या नहीं, अब जो हैं और जो होने वाले हैं के बीच के समय को, विचारधारा को कैसे आगे किस मुक़ाम पर लेके जाना चाहते हैं उसको लेकर सोचना(?) होगा। वरना कम से कम मैं तो नहीं ही चाहूँगा कि मेरी अगली पीढ़ी जब ऐसा ही कुछ लिखे तो उसमें ये ज़िक्र करें कि मेरे इस लिखे में और उसके टाइम पीरियड में कोई ख़ास अंतर नहीं आया है।
कमियों को गिना के पतली गली से निकल जाना बहुत से लिखने वाले और कथित बुद्धजीवियों का स्पेशल टैलेंट(?) है। मैं सही(?) करने के कुछ सुझाव दूँगा यहाँ तो उससे ये कदापि न मान लिया जाए कि मैं अघोषित रूप से ख़ुद को बुद्धिजीवी कहलवाना चाह रहा हूँ, बाकी तो आप जानते ही हैं सब।
एक सुझाव तो इस उदाहरण से ही समझिए-
एक पढ़ा लिखा आदमी कभी भी रोड के बीच में (या उस जगह जहाँ किसी के लिए वो बाधा बने) खड़ा होकर के किसी से बात नहीं करने लगेगा। ज़रूर पहले वो सड़क के किनारे जाकर ही अपने ज़रूरी काम करेगा और इस तरह ट्रैफिक की समस्या कुछ हद तक सुलझ सकती है। और हाँ, बुद्धि पढ़ने लिखने से ज़रूर आती है पर बुद्धिमान होने के लिए पढ़ाई-लिखाई अनिवार्य घटक नहीं है। ऐसे बेशुमार लोग हैं जिन्हें पढ़ने-लिखने का कभी अवसर नहीं मिला तब भी वो साइंटिफिक टेम्परामेंट से लबालब भरे होते हैं। गाँव में किसी किसान से मिलिए जो शिद्दत से खेती करते हुए जीवन यापन कर रहा हो, पता चल जाएगा।
दूसरा सुझाव जो कि काम का नहीं है, छोड़ सकते हैं-
हम उस समय काल में हैं जहाँ दूसरों के लिए सोचना पाप है, सच में पाप है। और दूसरों के लिए न सोचने वाली बीमारी बहुत तेज़ी से फैली है। फ़िर इन लोगों (जिनमें मैं भी हो सकता हूँ) ने जो वातावरण का निर्माण किया है उसमें वो लोग भी कोई काम के नहीं जो दूसरों का भला चाहते हैं जो दूसरों के लिए सोचते हैं। ऐसे लोग कम नहीं हैं पर हमने उन्हें मजबूर किया है कि भाई ये क्या शौक़ पाल रहे हो दूसरों के लिए सोचना। पगलेट हो का ? अपना जीयो, बच्चे का ऊपरी तौर पर थोड़ा सोच लो और निकलो जल्दी से, इस जगह से।
तीसरा सुझाव पर्यावरण को लेकर है-
हम मनुष्य वैसे तो बहुत ही कम समय के लिए पृथ्वी पर आते हैं। मजे करो और निकलो, आने वाली पीढ़ी जो भुगतेगी वो ही जाने समझे/झेले, हमको क्या ? हमारी गुजरी हुई पीढ़ी ने हमारे लिए सोचा था क्या ? जैसे को तैसा
और ये भी समझिए कि राइट विंग की सरकारें हर जगह आती जा रहीं हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, हमारा भारत महान तो इन राइट विंग विचारधारा वाली सरकारों की प्रायोरिटीज़ में पर्यावरण बहुत बाद में आता है, आता है यहीं सुकून की बात नहीं है क्या, मुस्कुराइए ज़रा :)
हम मनुष्य वैसे तो बहुत ही कम समय के लिए पृथ्वी पर आते हैं। मजे करो और निकलो, आने वाली पीढ़ी जो भुगतेगी वो ही जाने समझे/झेले, हमको क्या ? हमारी गुजरी हुई पीढ़ी ने हमारे लिए सोचा था क्या ? जैसे को तैसा
और ये भी समझिए कि राइट विंग की सरकारें हर जगह आती जा रहीं हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, हमारा भारत महान तो इन राइट विंग विचारधारा वाली सरकारों की प्रायोरिटीज़ में पर्यावरण बहुत बाद में आता है, आता है यहीं सुकून की बात नहीं है क्या, मुस्कुराइए ज़रा :)
पर्यावरण को लेकर हम क्या कर सकते हैं ये आप जानिए। अपने फूल से खिलते बच्चों के, छोटे भाई-बहन के चेहरे देख के जानिए कि क्या कर सकते हैं।
चौथा सुझाव राज्य और जनता को लेकर-
गाँधी का रामराज्य के चरम को लें या फ़िर मार्क्सवाद के चरम सीमा 'साम्यवाद' को लें (समाजवाद का अगला और अंतिम चरण है साम्यवाद, समाजवाद ही आधे रस्ते में दम तोड़ दिया तो साम्यवाद तो अभी दूर की कौड़ी है) तो गाँधी और मार्क्स का मानना था कि राज्य का होना ही दुर्भाग्य है। राज्य का लोप हो जाना चाहिए मतलब कि जनता ख़ुद ही ख़ुद को शासित करे। और समाजवाद में तो धर्म की सार्वजनिक अनुपस्थिति की बात कही गई है जबकि साम्यवाद में धर्म का मनुष्य के मानस पटल से ही विलुप्त हो जाने की बात कही गई है। तो देख रहे हैं ना.. मार्क्स ग़लत नहीं बोले हैं कि धर्म, अफ़ीम का काम करता है।
जनता पहले है राज्य बाद में। जनता ठीक हो जाए तो न पुलिस की ज़रूरत है ना पुलिस के लिए भर्ती निकालने की। फ़िर भर्ती घोटाले भी नहीं होंगे। पर वहीं है ना.. हम अभी एक लड़का लड़की को अकेले में साथ बैठे देख लें(भले ही वो भाई- बहन ही क्यों न हो) तो क्या-क्या सोचने लगते हैं वो बताने की ज़रूरत है मुझे ? हाहाहा... तो ऐसे सोच वाले समाज में मैं साम्यवाद जैसी व्यवस्था लाने की, अमल करने की सोच रहा, सुझाव दे रहा हूँ। फ़िर से मुस्कुराइए ज़रा :)
बाकी तो सब ठीक ही है। अक्टूबर बीतने को है, नवम्बर दीवाली-छठ में और दिसम्बर सूरज को दिख जाने के इन्तज़ार में बिता देंगे। नए साल पर उम्मीद कर करेंगे कि करोना को देश निकाला मिले। उम्मीद करना ठीक ठीक वैसा ही है कि गमले में मिट्टी डाले बिना उसमें बीज डाल देना और सपने देखना कि फूल-फल आएँगे ही एक दिन। और किसी किसी के आ भी जाते हैं, यक़ीन कीजिए। करना ही पड़ेगा, आपके पास और कोई विकल्प है ?
एक विकल्प है कि मेरे इस पूरे लिखे को मेरा व्यक्तिगत मसला मान लीजिए और फटाक से भूल जाइए, आप आके पूरा पढ़ लिये और क्या चाहिए मुझे, एक लिखने वाले को। है कि नहीं ?
:)