31 जनवरी 2024

मैं फिल्म हूँ

डंकी का ट्रेलर देख के ट्विटर पर ये लिखा था-

सबकुछ कहने के तरीके में है "तुम बात करते हुए बीच में रुक के हँसती हो तो अच्छा लगता है" की बजाय कहा जाए "तुम बातों के बीच में जो हँसती हो ना तो उस पल जीवन से बेपनाह मोहब्बत होने लगती है।" दोनों एक ही बात है, कहन में अंतर है। @RajkumarHirani की यही ख़ूबी उन्हें अलग बनाती है…

3 इडियट्स नार्मल कहानी, जिससे सभी इंजीनियरिंग और वो समाज जो सर्टिफिकेट इशू करता है, वाले गुजरे हैं, केवल कहन के तरीके में बदलाव से फिल्म भुलाई न जाने वाली सूची में जुड़ गयी। #Dunki के ट्रेलर से अंदाज लग रहा कि कहानी नार्मल ही है, कहन के तरीके इसे भी अलग मुक़ाम हासिल करा दे शायद !

2018 में दिल्ली जब रहने आया तो थिएटर में पहली फ़िल्म देखी 'मुल्क़' दूसरी फ़िल्म थी जीरो, फर्स्ट डे फर्स्ट शो। जीरो मुझे अच्छी लगी। स्टार कास्ट की वज़ह से नहीं बल्कि 'रांझणा' वाले डायरेक्टर @aanandlrai की वज़ह से। शायद रांझणा वाली एक्सपेक्टेशन 'जीरो' के साथ भी जुड़ गई हो.

जीरो भी आनन्द एल राय की वज़ह से देखने गया था, #Dunki देखने का मोह भी राजकुमार हिरानी की वज़ह से ही है। एक अच्छी(?) और लंबे समय तक सराही जाने वाली फ़िल्म के लिए डायरेक्टर ही ड्राइवर सीट पर बैठा होता है

इस बात की तवज्जो इंडिया से बाहर की फ़िल्मों को बख़ूबी मिलता है मगर यहां सुपर स्टार का जो लेवल चस्पा है उसका क्या ही कहा जा सकता है। सिनेमा देखने वालों की समझ पर शंका करके बॉलीवुड का जो हश्र होना है हुआ ही है आगे भी होगा.




हाँ, तो कहानी कहने के तरीके... कहानियाँ सुनाना, सुनना, बनाना या उसमें भागीदारी करना, ये कला कम विज्ञान ज्यादा है। मुझे लगता है कि एक लेवल पर जाकर तो ये विशुद्ध विज्ञान ही है।


हम सब अपनी अव्यवस्थित जीवन के सारे पहलू/उलझन को किसी कहानी में फिट करके एक पैटर्न बनाते हैं फिर उससे हल मिले ना मिले, बेफ़िक्र रहने का ख़ूब सारा कच्चा माल मिल जाता है और फिर ये छोटी सी ज़िन्दगी गुजर जाती है जल्दी-जल्दी... शायद !


शायद ही कुछ.. हाहा... :)

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तो 2024 की थिएटर में देखी जाने वाली पहली फिल्म बनी डंकी। मुझे अच्छी लगी। यही मैटर करता भी है। फिल्मी पर्दे पर प्रेम कहानियों को देखना और उससे ख़ुद का जुड़ाव स्थापित करना उस थ्योरी को मजबूत करता है कि हम पिछले किसी जन्म में क्या थे और क्या अधूरा रह गया था जिसको पूरा करने के लिए इस जन्म में भटक रहे हैं। मेरा पिछला जन्म शायद किसी अजीब प्रेम कहानी से कुछ जुड़ा होगा। शायद..


हम यहाँ डंकी मूवी के रिव्यु के लिए नहीं आए हैं। धर्म के समान फिल्म भी एकदम नितांत व्यक्तिगत मसला है। किसी को कौन सी फिल्म अच्छी(?) लग रही और कौन सी नहीं इसके मापदंड समंदर में पानी का जितना कतरा है उतने हो सकते हैं। अपनी पसंद हम रख सकते हैं थोप नहीं सकते। अपनी पसंद थोपने के सारे सीधे/घुमावदार कोशिश हमें उस विशेष कला के प्रति अपने रुझान से धीरे धीरे महरूम करके हमें कमतर मनुष्य बनाने की ओर अग्रसर करती है।


डंकी में एक जगह आप ग़जनी की कल्पना को देखेंगे, एक जगह 3 इडियट्स का रणछोड़ दास दिखेगा तो जीरो का बउवा भी कईं जगह दिखेगा। सबसे बेहतरीन सीन है विक्की कौशल के कैरेक्टर का इंटरवल के पहले कहानी की डिमांड पर मरना और उसके मरने का दृश्य आपके ज़हन में कईं दिन तक टिक जाने वाला है।


आखिरी में तापसी पन्नू के किरदार का टिपिकल शाहरुख़ के सामने जाने वाला सीन भी काबिलेगौर है।


फाइट वाला सीन ज़रूर अटपटा लगता है क्योंकि अचानक से शाहरुख़ में 'पठान' और 'जवान' वाला कैरेक्टर घुस जाता है जिसकी ज़रूरत नहीं थी। इमिग्रेशन टॉपिक के ख़ामियों को और बेहतरी से दिखाया जाना चाहिए था। इत्ती आसानी से अब बॉर्डर टापना मुमकिन नहीं होता।





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मेरी कोशिश हर बार रहती ही है कि जिस शहर भी घूमने जाऊँ, वही के थिएटर में लगी हुई कोई फिल्म ज़रूर देखूँ, ज़्यादातर बारी ये संभव भी हो जाता है। ऐसे में एक ख़ास तरह की याद बनती है जिसे भूलना लगभग नामुमकिन होता है। करके देखिए आप भी अगली बार से :)

जनवरी में 3 फिल्मों से गुजरा। मैंने प्रतीक भाई को डंकी दिखाई थी तो प्रतीक भाई अपनी बारी पर सालार दिखाने वाले थे पर 'हनुमान' दिखाए (डायरेक्टर प्रशांत वर्मा की वज़ह से) और हनुमान फिल्म ऐसी है कि देखना पड़ा मुझे। BGM अगर ठीक नहीं होता तो थिएटर में मेरी नींद बीच-बीच में नहीं ही खुलती, सीधे आख़िरी में ही हनुमान चालीसा के पाठ के समय ही खुलती 🙃







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और जनवरी की आखिरी फिल्म बनारस में मैं अटल हूँ...








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फिल्मों से नाता गहरा है, रगों में हीमोग्लोबिन की उपस्थिति जैसे.. जैसे, बनारस के साथ अस्सी घाट का जुड़ाव जैसे 'तन्हाई' गाने में सोनू निगम की आवाज़।



ख़ैर, जीवन से फिल्म है या फिल्म से जीवन है ? इस सवाल का जवाब न मिलें इस जीवन में यही शुभेच्छा है. 😄



😍


स्वर्गीय जयप्रकाश चौकसे 🙏 का नाम सुने हैं आप कभी ? नहीं ? हमारे साथ(?) चलने में बहुत टाइम लगेगा अभी 🙃, तुम्हें ये नार्मल बात लगेगी परन्तु मेरे लिए ये मेरा पक्का यक़ीन है। हाहाहा...

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